धुँध


सपने हैं धुँधले,

रातें अँधेरी ,

मैं यूँ ही उजालों को पाने चला हूँ 

है धुँध इस फिज़ा में,

बहुत दूर फैली ,

जो है खो गया उसे पाने चला हूँ 

जहर ही बचा है,

इस प्याले में अब तो,

पीकर इसे अब अमर हो चला हूँ 

जो है सांस थोड़ी ,

उसे भी लुटा दूँ ,

खुदा के भी अहसान चुकाने चला हूँ 

कवि - राजू रंजन 

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