रातें अँधेरी ,
मैं यूँ ही उजालों को पाने चला हूँ ।
है धुँध इस फिज़ा में,
बहुत दूर फैली ,
जो है खो गया उसे पाने चला हूँ ।
जहर ही बचा है,
इस प्याले में अब तो,
पीकर इसे अब अमर हो चला हूँ ।
जो है सांस थोड़ी ,
उसे भी लुटा दूँ ,
खुदा के भी अहसान चुकाने चला हूँ ।
कवि - राजू रंजन
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