समर्पण

 


कभी वंशी धरी कभी धनुष उठाया,

कभी माखन तो कभी जूठे बेरों को खाया ।

भक्त जो आए चरण तुम्हारे,

उनके चरण-रज को शीश लगाया ।

भक्त करें जब भक्ति तुम्हारी,

प्रभु से भी प्रभु की भक्ति को पाया ।

थोडा सा भी तुम पर जब प्रेम लुटाया,

कोटि गुणा फिर तुमसे है पाया ।

तुम ही रहो अब अंतस हमारे,

जहाँ भी देखा बस तुमको ही पाया ।

कवि- राजू रंजन

टिप्पणियाँ