मैं अकेला

 


नेह से वंचित,

रक्त से रंजित ,

काँटे बिंधे पैरों से चलता ,

मैं अकेला !

ना ही कोई साथ है मेरे ,

ना ही थामे हाथ है मेरे ,

इस मरू में प्यासा - प्यासा सा ,

मैं अकेला !

ना ही कोई दोष है मेरा ,

ना ही कोई शेष है मेरा ,

सबसे छूटा सबसे टूटा ,

कल्पवृक्ष की डाल से टूटा ,

मैं अकेला !

रहा न अब जीवन का मोह ,

नहीं किसी का बाकी छोह ,

मृत्यु के आलिंगन हेतु ,

काल की बैठा राह ताकता ,

मैं अकेला !

कवि - राजू रंजन 



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