कि जब-जब गिरते हैं आँसू इन आँखों से,
हर बूँद में आधा हिस्सा तुम्हारा ही पाया है ।
कि जब रहता हूँ दूर तुमसे,
तुम्हें भी साथ-साथ तड़पता पाया है ।
कि जब-जब तरसी हैं ये अँखियाँ तुम्हें देखने को,
तुम्हें भी साथ-साथ तरसता पाया है ।
कि ऐसे शामिल हो गए हैं हम दोनों,
एक दूसरे के जज्बातों में,
कि खुद की शख्सियत को तुममें घुलता पाया है ।
कि ये इश्क हद से गुजर चुका है शायद,
अलग-अलग रहे ही नहीं अब हम,
जब भी देखा बस एक को ही पाया है ।
कवि-राजू रंजन
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