जो मूरत मन में बसाई है,
उस मूरत को मैं क्यों तोडूँ ?
है मोह बड़ा प्यारा सा ये,
इस मोह को मैं क्यों छोडूँ ?
जग जीत भले जाए मुझसे,
विश्वास- बंध मैं क्यों तोडूँ?
जो वचन मेरा खुद से है,
उस वचन से मुँह मैं क्यों मोडूँ ?
इस जग के झंझावातों में,
मैं अटल रहा अब क्यों बदलूँ ?
छोड़े चाहे सारा जग ये,
मैं अपना नाता क्यों तोडूँ ?
है शाश्वत मेरा प्रेम प्रभु ,
इसमें बहना मैं क्यों छोडूँ ?
कवि - राजू रंजन
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