कि लोगे कितनी मेरी अग्नि-परीक्षा ?
हर बार जब निकलता हूँ अग्नि-कुंड से,
चमक पहले से और बढ़ जाती है ।
कि हर बार की तुम्हारी अग्नि-परीक्षा ,
अनजाने में तुम्हें बनाती जाती है लघुतर,
और मैं हर बार होता जाता हूँ गुरुतर ।
कि मुझे भय है कि एक दिन कहीं ,
तुम्हारी परीक्षा मेरे कलेवर को समा न पाए,
और मैं उस विशाल में ऐसा विलीन हो जाऊँ,
कि फिर कोई शेष ही न रहे ,
जिसकी हो बार-बार अग्नि-परीक्षा ।
कवि- राजू रंजन
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