व्रण

 


शोक स्वरों से गुंजित नभ में रात विराज रही है,

नभ के आँचल से मधुवन में ओस बरसा रही है ।

पुष्प अंक में सोई तितली गुन-गुन पूछ रही है,

बिहाग के सुर सुन तारकगण क्या अश्रु बहा रहे हैं ?

ऐसा लगता है प्रकृति भी बंधन बाँध रही है ,

अनंत शून्य तारों में जैसे वियोग पिरो रही है ।

सृष्टि जैसे अपने वक्ष के व्रण दिखला रही है,

आर्त जगत के सुप्त शीश पर हस्त फिरा रही है ।

कवि- राजू रंजन

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