अमृत

 


जो भी उस क्षण मेरे संग जिया,

अमृत को भर-भर कंठ पिया ।

तुम चूक गए वो दंश प्रिये ,

जिसमे थे प्रेम के अंश प्रिये ।

खुद भी मैं बेहोश रहा ,

जग भी सम्मुख मदहोश रहा ।

बस आंखे थी मदमाती सी,

प्रेम की राह दिखाती सी।

जग के सब सुख बेमोल पड़े,

पग के काँटों के मोल बड़े ।

उस पल का जीना शेष न हो ,

फिर जीवन से कोई द्वेष न हो ।

कवि - राजू रंजन 


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