अंतर्ध्वनि

सुन ली सबकी इसकी उसकी,

कभी सुनी ना अपने मन की ।

आज विचारोगे जब मुड़कर,

सब खुश हैं,

बस तुम हो विह्वल !

सबके दीप हैं, सबकी दीवाली ,

तुम्हारे दीपक बुझे - बुझे से ।

कोई मनाता दिवस जन्म का,

कोई मनाता है तरुणाई ।

तुम्हारे होंठ ही बंधे पड़े हैं,

ना ही जल है ना अरुणाई ।

नया वर्ष है नई फ़िज़ा है,

आओ आज नया कुछ कर लो ।

तोड़ दो सारे बंधन जग के,

कर लो तुम बस खुद से बातें ।

फिर से लौटो अंतस के तल,

सुन लो मन की , झाँको भीतर ।

कवि- राजू रंजन



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