अपेक्षा

 


साध जो पाता मैं मन सबके,

क्यों ना होता बुद्ध प्रिये ?

सरल मनुज फिर ना रह पाता,

हो जाता मैं शुद्ध प्रिये ।

फिर क्या जीवन और मरण फिर ,

हो जाता मैं मुक्त प्रिये ।

फिर क्या प्रेम का बंध रह पाता,

उड़ जाता स्वच्छंद प्रिये ।

फिर ना होता कोई जगत,

और ना होता शून्य प्रिये ।

फिर ना होते प्रश्न तुम्हारे,

ना पुण्य ना पाप प्रिये ।

कवि- राजू रंजन

टिप्पणियाँ