फिर से मंडी सजी हुई है,
सपनों की अरमानों की ।
भूखी जनता पूछ रही है,
कीमत मजदूर - किसानों की ।
जात - धर्म की हाट लगी है,
कहीं सुशासन बिकता है ।
राष्ट्रवाद की छौंक लगी है,
पीछे सबकुछ बिकता है ।
कहीं फ्री का सब्जबाग है,
कहीं बाहुबली दिखता है ।
तुम भी अपनी कीमत बोलो ,
यहाँ तो सबकुछ बिकता है ।
किसी का झंडा हरे रंग का,
किसी का भगवा किसी का तीर ।
है बस देर परिणाम की,
खाएँगे सब मिलकर खीर ।
कवि - राजू रंजन
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