कभी सोचता हूँ ,
कि कितने विशाल हो तुम !
कि कैसे पार पाए बुद्धि ,
तुम्हारी अनंतता पर ।
कि कहाँ समेटूँ ,
तुम्हारे विस्तार को ।
हर बार हार जाता हूँ मैं ,
जब - जब नेत्र अनंत फलक तक जाते हैं ।
कि मेरी दृष्टि है बद्ध ,
और तुम हो अबद्ध ।
कि करो तुम ही कुछ उपाय ,
कि कुछ मेरे लिए भी हो सहाय ।
कि छू दो कभी मेरी भृकुटी के मध्य ।
कि मैं फट पडूँ ,
और समा जाऊँ इस अनंत के कण - कण में ।
ओ विशाल ! ओ असांत !
कवि - राजू रंजन
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