स्वप्न

स्वप्न है सुन्दर ,
क्रूर जगत से ।
यहाँ न सीमा,
ना है पहरे ।
उड़ सकते हैं जितना चाहे ,
खुली हवा में नील गगन में ।
यहाँ ना कोई नीति - नियम है ,
ना तो कोई जाति - धरम है ।
मुदित हो मन जिस - जिस क्षण में ,
स्वप्न नहीं वह स्वर्ग - शयन है ।
चाहो तो देवों से मिल लो ,
चाहो तो दानव को छू लो ।
ना है जग की कड़वी बातें ,
ना ही विह्वल काली रातें ।
मुख खोलो तो सत्य बहेगा ,
निर्झर से बस पुण्य झरेगा ।
निर्मल ! हे मन ! लीन रहो तुम ,
मन का आतप - क्लेश मिटेगा ।
कवि - राजू रंजन

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