सत्य कहता है


कि सिर्फ सत्य को मानना ही पर्याप्त नहीं ,
न ही सिर्फ उसमें विश्वास रखना पर्याप्त है ,
कि बहुत जरूरी है उसके साथ खड़ा रहना ,
जब किया जा रहा हो जलील उसे ।
अपराध और भी बढ़ जाता है ,
जब सत्य की सफेदी को छुपा देते हैं हम,
असत्य की काली चादर से ,
दबा देते हैं उस सत्य को,
सिर्फ समझौतों के लिए ।
जबकि सत्य समझौतों का मुहताज नहीं ,
न ही सत्य को आवश्यकता है ,
आराम की !
क्योंकि सत्य तो निकलता ही है ,
तपकर अग्निशिखा से ।
और फिर माँगता है संघर्ष ।
और कहता है ,
कि कभी भी तुम्हे गोते लगाने पड़ सकते हैं ,
अग्नि- सरोवर में ।
कि सुकुमार मन का हास - परिहास नहीं हूँ मैं ,
मुझे साथ रखने पर तपना होगा तुम्हे ,
कि खानी होगी रगड़ ,
कि छिल जायेंगे तुम्हारे तलवे ,
मेरे साथ चलकर ।
और झुलस पड़ेगी चमड़ी !
हाँ ! लेकिन !
जब साथ रहूँगा मैं ,
दमकता रहेगा तुम्हारा मुख !
कि उसकी कांति के आगे ,
म्लान हो उठेगा सर्वश्रेष्ठ भी ।
कि झुक जायेंगे न जाने कितने शीश !
कि सदियों तक गाई जाएगी तुम्हारी गाथा !
कवि - राजू रंजन

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