उस गठरी में रखे थे उसने संभाल के
पाँच सौ के चार नोट ।
वो नोट जिसमें शेष थी नयेपन की महक अभी भी
गठरी की गंध भी जिसे मिटा नहीं सकी थी ।
सुना किसी से ये नोट नहीं चलेंगे अब
पूरे बरस लोगों का वजन बता - बताकर
सिक्कों को नोटों में , फिर नोटों को पाँच सौ के नोट में ,
बदलने की कथा बड़ी लंबी है ।
फिर सुना , बदल सकते हैं इसे भी !
जान में जान आई !
पर, किसी ने बताया कि प्रूफ चाहिए
प्रूफ पहचान का !
फिर से वो निराश हो उठा !
जिसकी कोई पहचान ही नहीं
वो प्रूफ कहाँ से लाये अपनी पहचान का ?
सड़क पर सोनेवाले की क्या होती है पहचान ?
गर्मी की लू और ठण्ड की सिहरन ने भी कभी नहीं पूछा
प्रूफ पहचान का ।
बिना किसी भेदभाव के बारिश ने भिंगोया तन भर उसे
पर, नहीं पूछा कभी
प्रूफ पहचान का !
तो क्या बेकार हो जायेंगे उसके ये नोट ?
नहीं ! किसी ने कहा - बदल दूंगा तेरे भी नोट
क्योंकि कई प्रूफ हैं मेरी पहचान के !
बस ये चार नोट तीन हो जायेंगे !
बड़ा महँगा था सौदा !
पर , तीन तो मिलेंगे वरना कुछ भी नहीं बचेगा ।
तो फिर कर डाला उसने भी सफ़ेद अपना काला धन !
बिना किसी पहचान के ।
फिर से बँध गयी गठरी तीन नोटों के साथ ।
कवि - राजू रंजन
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मार्मिक है कविता
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