महाभारत खंड - 1 युद्ध के बीज – 13

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सत्यवती दीपक के प्रकाश में दिन में घटी घटना पर विचार कर रही थी ।  

भविष्य मानों सत्यवती के नेत्रों के आगे तैर रहा हो ।

कोई भी राजा अपनी अवहेलना स्वीकार नहीं कर सकता । राजा शांतनु निश्चय ही अब विवाह प्रस्ताव लेकर आयेंगे । सत्यवती का मस्तिष्क भविष्य को देख भी रहा था और उसके अनुसार ही भविष्य में लिए जानेवाले निर्णयों की रूपरेखा भी तैयार कर रहा था ।

दासराज ने कक्ष में प्रवेश किया । सत्यवती पर उसका कोई प्रभाव नहीं पडा । उसे इसका आभास तक नहीं हुआ । दासराज ने सत्यवती के निकट जाकर उसके सिर  पर अपना हाथ रखा । हाथ के स्पर्श से सत्यवती की तंद्रा भंग हुई । वह चौंक उठी ।

पिताश्री ! “

हाँ ! पुत्री ! तुम्हारे मनो मस्तिष्क में जो चल रहा है उसका आभास इस पिता को भी है । अपने मन के संशय को दूर करो । सुना है आज भी महाराज शांतनु ने हमारी नौका से यमुना विहार किया ।

दासराज को इस बात की सूचना मिल गयी थी । सत्यवती ने लज्जावश अपनी आँखें भूमि पर टिका दी ।

महाराज का आना शुभ ही होगा । किन्तु , अगर कोई अप्रिय बात हो तो अपने पिता को अवश्य बताना । जो घटनाएं राजाओं के लिए मात्र क्रीडा होती है । वह हम जैसे सामान्य जनों के जीवन के आयाम को परिवर्तित कर देनेवाली होती है । सतर्क रहना पुत्री ! “

दासराज ने जिस ओर इंगित किया उसका बोध सत्यवती को था । वह अब भी कुछ विचार कर रही थी । किन्तु , उसने अपने मुख से कुछ भी नहीं कहा । एक पिता इससे अधिक कह भी क्या सकता था ! सत्यवती को कुछ भी न कहते देख दासराज जाने को तैयार हुए । उन्होंने पग द्वार की और बढाए ही थे कि सत्यवती के कंठ का स्वर उनके कानों तक पहुंचा ।

पिताश्री ! तनिक ठहरिये ! “

दासराज मुड़कर सत्यवती की ओर देखने लगे ।

पिताश्री ! मुझे आपसे कुछ विशेष वार्तालाप करना है ।

हाँ ! कहो पुत्री ! निस्संकोच कहो ।

संभव है कि महाराज शांतनु आपके समक्ष मुझसे विवाह का प्रस्ताव लेकर आएँ !”

विवाह प्रस्ताव ! “ दासराज चौंक उठे ।

हाँ ! पिताश्री ! विवाह प्रस्ताव ! राजा शांतनु मुझसे विवाह का प्रस्ताव लेकर आपके पास आयेंगे । इसकी संभावना है ।

दासराज यह सुनकर मानों जम से गए कुछ समय के लिए उनके कंठ से कोई ध्वनि नहीं निकली

अपने पिता के मुख पर छाई इस उदासी को देखकर सत्यवती बोल पड़ी –

“ क्या हुआ पिताजी क्या आप इस बात से प्रसन्न नहीं कि आपकी पुत्री का विवाह हस्तिनापुर के महाराज से हो ? “

“ पुत्री प्रश्न प्रसन्नता या फिर दुख का नहीं है प्रश्न है तुम्हारे भविष्य का ? कहीं तुम उस राजपरिवार में मात्र एक आमोद – प्रमोद की वस्तु बनकर न रह जाओ क्योंकि हस्तिनापुर की महारानी बनने पर भी तुम्हारे पुत्र का अधिकार सिंहासन पर नहीं होगा सिंहासन पर अधिकार देवव्रत का ही होगा “- यह कहकर दासराज शांत हो गए

सत्यवती ने ऐसे कभी सोचा ही न था क्योंकि उसका ध्यान कभी भी राजसिंहासन पर न था वह तो मात्र महाराज शांतनु के प्रेम में थी  और निश्छल प्रेम के समक्ष तो सत्ता एवं समस्त भौतिक सुख-सुविधाओं का कोई मूल्य नहीं

किन्तु, आज उसे अपने पिता के नेत्रों में एक हिंसक चमक दिख रही थी जिसने उसके हृदय को भयाक्रांत कर दिया

“ पुत्री तुम्हारे भाग्य का निर्णय मैं ही करूँगा महाराज शांतनु जब भी आएंगे दासराज उनका स्वागत करेगा “ – यह कहकर दासराज उस कक्ष से बाहर चले गए

सत्यवती का मन न जाने किस अज्ञात भय से सहमा जा रहा था

आमावास्या की रात्रि की कालिमा मानों सबकुछ ग्रसने के लिए अपना स्वरूप भीषण से भीषणतर बनाती जा रही थी

क्रमशः ...................
लेखक - राजू रंजन

 पढ़ें : महाभारत : महाभारत खंड - 1 युद्ध के बीज – 7 

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