सत्यवती दीपक के प्रकाश में दिन में
घटी घटना पर विचार कर रही थी ।
भविष्य मानों सत्यवती के नेत्रों के
आगे तैर रहा हो ।
कोई भी राजा अपनी अवहेलना स्वीकार नहीं
कर सकता । राजा शांतनु निश्चय ही अब विवाह – प्रस्ताव लेकर आयेंगे । सत्यवती का मस्तिष्क भविष्य को देख भी रहा था और उसके
अनुसार ही भविष्य में लिए जानेवाले निर्णयों की रूपरेखा भी तैयार कर रहा था ।
दासराज ने कक्ष में प्रवेश किया ।
सत्यवती पर उसका कोई प्रभाव नहीं पडा । उसे इसका आभास तक नहीं हुआ । दासराज ने
सत्यवती के निकट जाकर उसके सिर पर अपना
हाथ रखा । हाथ के स्पर्श से सत्यवती की तंद्रा भंग हुई । वह चौंक उठी ।
“ पिताश्री ! “
“ हाँ !
पुत्री ! तुम्हारे मनो – मस्तिष्क में जो चल रहा है उसका आभास इस पिता को भी
है । अपने मन के संशय को दूर करो । सुना है आज भी महाराज शांतनु ने हमारी नौका से
यमुना – विहार किया । “
दासराज को इस बात की सूचना मिल गयी थी ।
सत्यवती ने लज्जावश अपनी आँखें भूमि पर टिका दी ।
“ महाराज का आना शुभ ही होगा । किन्तु , अगर कोई अप्रिय बात हो तो अपने पिता को अवश्य बताना
। जो घटनाएं राजाओं के लिए मात्र क्रीडा होती है । वह हम जैसे सामान्य जनों के जीवन
के आयाम को परिवर्तित कर देनेवाली होती है । सतर्क रहना पुत्री ! “
दासराज ने जिस ओर इंगित किया उसका बोध
सत्यवती को था । वह अब भी कुछ विचार कर रही थी । किन्तु , उसने अपने मुख से कुछ भी नहीं कहा । एक पिता इससे
अधिक कह भी क्या सकता था ! सत्यवती को कुछ भी न कहते देख दासराज
जाने को तैयार हुए । उन्होंने पग द्वार की और बढाए ही थे कि सत्यवती के कंठ का
स्वर उनके कानों तक पहुंचा ।
“ पिताश्री ! तनिक ठहरिये ! “
दासराज मुड़कर सत्यवती की ओर देखने लगे ।
“ पिताश्री ! मुझे आपसे कुछ विशेष वार्तालाप करना है । “
“ हाँ !
कहो पुत्री ! निस्संकोच कहो ।”
“ संभव है कि महाराज शांतनु आपके समक्ष मुझसे विवाह
का प्रस्ताव लेकर आएँ !”
“ विवाह – प्रस्ताव ! “ दासराज चौंक उठे ।
“हाँ !
पिताश्री ! विवाह –
प्रस्ताव ! राजा शांतनु मुझसे विवाह का प्रस्ताव लेकर आपके पास
आयेंगे । इसकी संभावना है ।
“
दासराज यह सुनकर मानों जम से गए । कुछ समय के लिए उनके कंठ से कोई ध्वनि नहीं निकली ।
अपने पिता के मुख पर छाई इस उदासी को
देखकर सत्यवती बोल पड़ी –
“ क्या हुआ पिताजी क्या आप इस बात से
प्रसन्न नहीं कि आपकी पुत्री का विवाह हस्तिनापुर के महाराज से हो ? “
“ पुत्री प्रश्न प्रसन्नता या फिर दुख
का नहीं है । प्रश्न है तुम्हारे भविष्य का ? कहीं
तुम उस राजपरिवार में मात्र एक आमोद – प्रमोद की वस्तु बनकर न रह जाओ । क्योंकि हस्तिनापुर की महारानी बनने पर भी तुम्हारे पुत्र का अधिकार
सिंहासन पर नहीं होगा । सिंहासन पर अधिकार देवव्रत का ही होगा
। “- यह कहकर दासराज शांत हो गए ।
सत्यवती ने ऐसे कभी सोचा ही न था । क्योंकि उसका ध्यान कभी भी राजसिंहासन पर न था । वह तो मात्र महाराज शांतनु के प्रेम में थी और निश्छल प्रेम के समक्ष तो सत्ता एवं समस्त
भौतिक सुख-सुविधाओं का कोई मूल्य नहीं ।
किन्तु, आज उसे अपने पिता के नेत्रों
में एक हिंसक चमक दिख रही थी । जिसने उसके हृदय को भयाक्रांत कर दिया
।
“ पुत्री तुम्हारे भाग्य का निर्णय मैं
ही करूँगा । महाराज शांतनु जब भी आएंगे दासराज
उनका स्वागत करेगा । “ – यह कहकर दासराज उस कक्ष से बाहर
चले गए ।
सत्यवती का मन न जाने किस अज्ञात भय से
सहमा जा रहा था ।
आमावास्या की रात्रि की कालिमा मानों
सबकुछ ग्रसने के लिए अपना स्वरूप भीषण से भीषणतर बनाती जा रही थी ।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें