महाभारत खंड - 1 युद्ध के बीज – 19

 


राजा शांतनु कई दिनों से सभा में उपस्थित नहीं हो रहे थे । मंत्रीगण इस बात को लेकर चिंतित थे । किन्तु , कोई भी इस बात को खुलकर बोलना नहीं चाहता था । महाराज की अनुपस्थिति में उनके सारे कार्यों का दायित्व देवव्रत ने अपने कंधों पर उठा रखा था । किन्तु , चिंता तो युवराज के मन में भी थी । संध्या के समय देवव्रत राजा शांतनु से कुछ पूछते तो भी कोई उत्तर न मिलता । थक हारकर युवराज ने प्रधान अमात्य से इस संदर्भ में बात की । प्रधान अमात्य ने भी कारण तो नहीं बताया किन्तु  इतना अवश्य कहा कि दिन के समय महाराज कहीं जाते हैं । अब कहाँ जाते हैं इसका ठीक ठीक उत्तर तो महाराज ही दे सकते हैं या उनके सारथी से यह उत्तर मिल सकता है ।  महाराज से तो उन्हें कोई उत्तर अबतक न मिला था । अब एक ही मार्ग शेष था कि सारथी से इस संदर्भ में पूछा जाये ।

देवव्रत ने सारथी को अपने समक्ष उपस्थित होने का संदेश भेजा । सारथी कुछ देर में उनके समक्ष पहुँचा ।

युवराज की जय हो ! आज्ञा कीजिये ।

देवव्रत के मुख पर इन शब्दों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा ।

सारथी ! मुझे आपकी सहायता चाहिए ।

युवराज ! आप सहायता शब्द से मुझे लज्जित न करें ।  आपकी आज्ञा का पालन करना तो मेरा कर्तव्य है ।

तो फिर मुझे बताएं कि दिन के समय पिताश्री कहाँ जाते हैं ?”

क्षमा करें युवराज ! किन्तु , इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं दे सकता ।

क्यों नहीं दे सकते ?

क्योंकि मैं महाराज के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता ।

आप महाराज के साथ विश्वासघात नहीं कर सकते । किन्तु , सम्पूर्ण हस्तिनापुर के साथ कर सकते हैं ?

ऐसा न कहें युवराज ! हस्तिनापुर के साथ विश्वासघात की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता ।

तो फिर यह अच्छी तरह से समझ लें कि आपका उत्तर न देना हस्तिनापुर के साथ विश्वासघात ही है । महाराज का इस तरह से राजसभा से अनुपस्थित होना हस्तिनापुर के लिए उचित नहीं । उनकी अनुपस्थिति का कारण कोई नहीं जानता । अगर कोई जानता है तो वो आप हैं । अगर आप ने कारण नहीं बताया तो यह सम्पूर्ण राज्य के लिए अहितकर होगा । क्योंकि एक राजा का अपने कर्तव्य से विमुख होना सम्पूर्ण राज्य का भविष्य अंधकारमय बना देता है । आप राजा के विश्वासपात्र बनना चाहते है या इस हस्तिनापुर के विश्वासपात्र ? इस राज्य के प्रति आपका कर्तव्य क्या कहता है ?

देवव्रत के प्रश्नों ने सारथी के मन की गांठों को खोल दिया

महाराज प्रतिदिन यमुना तट पर जाते हैं ।

यमुना तट ! किस हेतु ?

दासराज की पुत्री सत्यवती से उन्हे प्रेम हो गया है । वह विवाह प्रस्ताव लेकर भी गए थे । किन्तु ........ “

किन्तु क्या ?

सारथी चुप ही रहा ।  देवव्रत ने पुनः कहा

किन्तु क्या ? आप खुलकर बताएं ।

दासराज ने अनुचित माँग रखी । उसका कहना है कि हस्तिनापुर का सिंहासन सत्यवती की संतान को ही मिले । महाराज ने यह अस्वीकार कर दिया । किन्तु , उनके मन से सत्यवती के प्रति मोह भंग नहीं हो रहा है । वह प्रतिदिन सत्यवती को देखने ही यमुना तट पर जाते हैं ।

सारथी के शब्दों से मानों बिजली सी कौंधी । कक्ष में सन्नाटा छा गया । 

हस्तिनापुर का सिंहासन !

देवव्रत थोड़े विचलित से हो गए ।

यह कैसी माँग ! क्या मनुष्य के स्वार्थ की कोई सीमा नहीं ?

प्रेम में भी व्यापार !

अगर विवाह करना है तो शर्तें पूरी करनी होंगी !

पिताश्री ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर उचित ही किया । ऐसा  स्वार्थपूर्ण संबंध भविष्य में भी दुःख का कारण ही बनेगा ।

किन्तु , शीघ्र ही पिता का वह क्लांत एवं दुखी मुख उनके नेत्रों के सामने तैर उठा । पिताश्री ने उस प्रस्ताव को तो अस्वीकार कर दिया परन्तु, उस प्रेम के आगे स्वयं को विवश पा रहे हैं । उन्होंने पुत्र प्रेम एवं कर्त्तव्य को आगे रखकर उस प्रस्ताव को तो अस्वीकार कर दिया । पर, उनका हृदय इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा ।

आज देवव्रत को अपने पिता पर गर्व हो रहा है ।

पिता तो अपने धर्म का पालन कर रहे हैं किन्तु, एक पुत्र का धर्म क्या है ?

तत्क्षण यह प्रश्न उनके मन में कौंधा । जब एक पिता अपने पुत्र के लिए अपने सुखों की तिलांजलि दे सकते है तो एक पुत्र को क्या करना चाहिए ?

किन्तु इस कर्त्तव्य का मूल्य काफी अधिक नहीं है ?

अपने अधिकार, अपने भविष्य, अपनी समस्त इच्छाओं का परित्याग !

क्या ऐसा कर पाना इतना सरल है । अबतक हस्तिनापुर का युवराज होने के गौरव से जो इस मन-मस्तिष्क में आनंद एवं गर्व की अनुभूति छाई रहती थी ,क्या उसका परित्याग इतना सरल है ?

सहसा देवव्रत को वह कहानी याद आ गयी जो उसने सुनी थी कि किस प्रकार उसके सात अग्रजों को माता ने नदी में प्रवाहित कर दिया था । फिर पिता ने देवव्रत के प्राणों की रक्षा के लिए अपने वचन को भी भंग कर दिया था साथ ही अपनी पत्नी से भी उन्हें अलग होना पडा था । कई वर्षों तक पिताश्री ने एकाकी जीवन ही व्यतीत किया । अपने समस्त सुखों का परित्याग कर दिया ताकि उनका पुत्र जीवित रहे । आज पुनः अपने पुत्र के अधिकार की रक्षा के लिए अपने सुख का त्याग कर रहे हैं । आज उनकी  मानसिक अवस्था ऐसी हो चुकी है कि संस्कारवश तो उनहोंने यह कठोर निर्णय ले लिया है किन्तु , उनका मन अभी भी इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा । ऐसी चिंता निश्चय ही उनके अंतस को गहरा आघात पहुंचा रही है जिसका प्रभाव अभी से दिखने लगा है । न तो उन्हें प्रजा एवं राज्य की  सुध रही न ही उन्हें अपने शरीर की चिंता है ।   

कहीं यह चिंता उनके ........

नहीं ! नहीं ! ऐसी कल्पना करना भी उचित नहीं ।

देवव्रत को समझ आने लगा कि उन्हें क्या करना है । पिता ने तो अपने धर्म का पालन किया अब पुत्र की बारी है ।

 सारथी ! आप मुझे इसी क्षण दासराज के पास ले चलें ।

इस समय युवराज ! संध्या होने वाली है ?

इससे पहले कि हस्तिनापुर की सांध्य बेला निकट आ जाये । आप मुझे दासराज के पास ले चलें ।

देवव्रत के शब्दों में दृढ़ता थी । सारथी ने रथ तैयार किया । देवव्रत उसपर सवार हो गए ।

क्रमशः ....

लेखक – राजू रंजन  

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