देवव्रत
ने सारथी को अपने समक्ष उपस्थित होने का संदेश भेजा । सारथी कुछ देर में उनके
समक्ष पहुँचा ।
“ युवराज की जय हो ! आज्ञा कीजिये । “
देवव्रत
के मुख पर इन शब्दों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा ।
“सारथी ! मुझे आपकी सहायता चाहिए ।“
“ युवराज ! आप ‘सहायता’ शब्द से मुझे लज्जित न करें । आपकी आज्ञा का पालन करना तो मेरा कर्तव्य है । “
“ तो फिर मुझे बताएं कि दिन के समय पिताश्री कहाँ
जाते हैं ?”
“ क्षमा करें युवराज ! किन्तु , इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं दे सकता
। “
“ क्यों नहीं दे सकते ? “
“ क्योंकि मैं महाराज के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता
। “
“ आप महाराज के साथ विश्वासघात नहीं कर सकते । किन्तु
, सम्पूर्ण हस्तिनापुर के साथ कर सकते हैं ? “
“ ऐसा न कहें युवराज ! हस्तिनापुर के साथ विश्वासघात की तो
मैं कल्पना भी नहीं कर सकता । “
“ तो फिर यह अच्छी तरह से समझ लें कि आपका उत्तर न
देना हस्तिनापुर के साथ विश्वासघात ही है । महाराज का इस तरह से राजसभा से
अनुपस्थित होना हस्तिनापुर के लिए उचित नहीं । उनकी अनुपस्थिति का कारण कोई नहीं
जानता । अगर कोई जानता है तो वो आप हैं । अगर आप ने कारण नहीं बताया तो यह
सम्पूर्ण राज्य के लिए अहितकर होगा । क्योंकि एक राजा का अपने कर्तव्य से विमुख
होना सम्पूर्ण राज्य का भविष्य अंधकारमय बना देता है । आप राजा के विश्वासपात्र
बनना चाहते है या इस हस्तिनापुर के विश्वासपात्र ? इस राज्य के प्रति आपका कर्तव्य क्या
कहता है ? “
देवव्रत
के प्रश्नों ने सारथी के मन की गांठों को खोल दिया –
“ महाराज प्रतिदिन यमुना तट पर जाते हैं । “
“ यमुना – तट ! किस हेतु ? “
“ दासराज की पुत्री सत्यवती से उन्हे प्रेम हो गया है
। वह विवाह – प्रस्ताव लेकर भी गए थे । किन्तु ........
“
“ किन्तु क्या ?
“
सारथी
चुप ही रहा । देवव्रत ने पुनः कहा –
” किन्तु क्या ? आप खुलकर बताएं । “
“ दासराज ने अनुचित माँग रखी । उसका कहना है कि
हस्तिनापुर का सिंहासन सत्यवती की संतान को ही मिले । महाराज ने यह अस्वीकार कर
दिया । किन्तु , उनके मन से सत्यवती के प्रति मोह भंग नहीं हो रहा है । वह प्रतिदिन
सत्यवती को देखने ही यमुना – तट पर जाते हैं । “
सारथी के शब्दों से मानों बिजली सी कौंधी । कक्ष में सन्नाटा छा गया ।
हस्तिनापुर का
सिंहासन !
देवव्रत
थोड़े विचलित से हो गए ।
यह
कैसी माँग ! क्या मनुष्य के स्वार्थ की कोई सीमा नहीं ?
प्रेम
में भी व्यापार !
अगर विवाह
करना है तो शर्तें पूरी करनी होंगी !
पिताश्री
ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर उचित ही किया । ऐसा स्वार्थपूर्ण संबंध भविष्य में भी दुःख का कारण
ही बनेगा ।
किन्तु
, शीघ्र ही पिता का वह क्लांत एवं दुखी मुख उनके नेत्रों के सामने तैर उठा ।
पिताश्री ने उस प्रस्ताव को तो अस्वीकार कर दिया परन्तु, उस प्रेम के आगे स्वयं को
विवश पा रहे हैं । उन्होंने पुत्र प्रेम एवं कर्त्तव्य को आगे रखकर उस प्रस्ताव को
तो अस्वीकार कर दिया । पर, उनका हृदय इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा ।
आज
देवव्रत को अपने पिता पर गर्व हो रहा है ।
पिता
तो अपने धर्म का पालन कर रहे हैं किन्तु, एक पुत्र का धर्म क्या है ?
तत्क्षण
यह प्रश्न उनके मन में कौंधा । जब एक पिता अपने पुत्र के लिए अपने सुखों की तिलांजलि
दे सकते है तो एक पुत्र को क्या करना चाहिए ?
किन्तु
इस कर्त्तव्य का मूल्य काफी अधिक नहीं है ?
अपने
अधिकार, अपने भविष्य, अपनी समस्त इच्छाओं का परित्याग !
क्या
ऐसा कर पाना इतना सरल है । अबतक हस्तिनापुर का युवराज होने के गौरव से जो इस
मन-मस्तिष्क में आनंद एवं गर्व की अनुभूति छाई रहती थी ,क्या उसका परित्याग इतना
सरल है ?
सहसा
देवव्रत को वह कहानी याद आ गयी जो उसने सुनी थी कि किस प्रकार उसके सात अग्रजों को
माता ने नदी में प्रवाहित कर दिया था । फिर पिता ने देवव्रत के प्राणों की रक्षा
के लिए अपने वचन को भी भंग कर दिया था साथ ही अपनी पत्नी से भी उन्हें अलग होना
पडा था । कई वर्षों तक पिताश्री ने एकाकी जीवन ही व्यतीत किया । अपने समस्त सुखों
का परित्याग कर दिया ताकि उनका पुत्र जीवित रहे । आज पुनः अपने पुत्र के अधिकार की
रक्षा के लिए अपने सुख का त्याग कर रहे हैं । आज उनकी मानसिक अवस्था ऐसी हो चुकी है कि संस्कारवश तो उनहोंने
यह कठोर निर्णय ले लिया है किन्तु , उनका मन अभी भी इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा । ऐसी
चिंता निश्चय ही उनके अंतस को गहरा आघात पहुंचा रही है जिसका प्रभाव अभी से दिखने
लगा है । न तो उन्हें प्रजा एवं राज्य की सुध
रही न ही उन्हें अपने शरीर की चिंता है ।
कहीं
यह चिंता उनके ........
नहीं !
नहीं ! ऐसी कल्पना करना भी उचित नहीं ।
देवव्रत
को समझ आने लगा कि उन्हें क्या करना है । पिता ने तो अपने धर्म का पालन किया अब
पुत्र की बारी है ।
“ सारथी ! आप मुझे इसी क्षण दासराज के पास ले चलें । “
“ इस समय युवराज ! संध्या होने वाली है ? “
“ इससे पहले कि हस्तिनापुर की सांध्य – बेला निकट आ जाये । आप मुझे दासराज के
पास ले चलें । “
देवव्रत
के शब्दों में दृढ़ता थी । सारथी ने रथ तैयार किया । देवव्रत उसपर सवार हो गए ।
क्रमशः ....
लेखक – राजू रंजन
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