दिवस पर
दिवस बीतते गए
। किन्तु, शांतनु
न तो दुबारा
दासराज की
कुटिया पर आये
न ही सत्यवती को दुबारा
उनके दर्शन हुए
।
सत्यवती रोज
की भांति आज
भी यमुना – तट
पर अपनी नौका
में बैठी निरुद्देश्य शून्य की
ओर अपनी दृष्टि
टिकाये थी ।
उसका मन कई प्रश्नों में उलझा था ।
क्या उसके पिता ने शांतनु को वचन
में बाँधने की
चेष्टा कर अनुचित
कर्म किया था
?
क्या अब
शांतनु पुनः वापस
नहीं लौटनेवाले ?
दिनों-दिन
समय का बीतता
चला जाना शायद
इसी सत्य को
बतला रहा था
।
अपनी महत्वाकांक्षा को पूरी
करने के हठ
में उसके पिता ने शांतनु के साथ अन्याय
नहीं कर डाला
?
क्या किसी
से अनुचित वचन
की आकांक्षा करना
पाप नहीं ?
शायद वह
राजा शांतनु से
उनकी कोई भी
प्रिय वस्तु माँगते तो वो हँसकर
दे देते । किन्तु पुत्र के
अधिकार – हरण के
लिए विवश करना
– यह अनुचित ही
तो है ।
कोई भी
सम्माननीय व्यक्ति अपना
सर्वस्व तो न्यौछावर
कर सकता है
किन्तु किसी अन्य
को विवश नहीं
कर सकता । आखिर किस मुख
से शांतनु अपने
पुत्र को अपना
अधिकार छोड़ने को
कहेंगे ?
निश्चय ही
उसके पिता ने अनुचित आग्रह किया
था ।
सत्यवती इन्ही
विचारों में खोयी
थी। उसकी आँखों
से अश्रु की
बूँदे ढलक उठीं
। अश्रुयुक्त नेत्र
से आकाश धुँधला
दिखने लगा । सत्यवती ने अपने
उत्तरीय के किनारे
से अपने अश्रु
पोछे ।
आह ! कितना
प्रेम भरा था
शांतनु के शब्दों
में –
“ श्याम वर्ण तो
स्वयं में ही
संपूर्ण वर्णों को
समाहित रखता है
। जिसमें सबकुछ
समाहित हो उससे
सुंदर तो कुछ
हो ही नहीं
सकता । “
आज विरह
का वह दंश
सत्यवती के हृदय
को भी व्यथित
कर रहा था
जिस दंश को
शांतनु लगातार झेल
रहे थे ।
आज विरह
की असह्य वेदना
ने सत्यवती के
हृदय के बाँध
को ध्वस्त कर
डाला था । उसके नेत्रों से
झर – झर आँसू
बहने लगे । लज्जावश उसने उत्तरीय से अपने
मुख को ढँक
लिया । कहीं
कोई उसे यूँ
ही तट पर
रोता न देख ले
।
क्रमशः ....
लेखक – राजू रंजन
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