रथ अपनी गति से चला जा रहा था । किन्तु ,
शांतनु का मन मानों अभी भी दासराज की कुटिया के बाहर ही खड़ा था । कमल के पुष्पों
की गंध मानों उनकी नासिका में बस गयी थी । उस सुगंध के पाश में बंधा उनका मन वहाँ
से डिगने को तैयार न था । किन्तु , उनका शरीर इस रथ के साथ
आगे बढ़ा जा रहा था । तेज वायु के झोंके से उनकी तंद्रा भंग हुई ।
यह कैसी दुर्बलता है ! वह क्यों चिंतन कर रहे हैं अभी भी
सत्यवती के बारे में ?
उनका मस्तिष्क उन्हे धिक्कार उठा ।
क्या उनका स्वार्थ उनके मन पर अपना आधिपत्य जमा चुका है ? क्या
अपने प्रेम के लिए वे अपने पुत्र के अधिकारों की बलि चढ़ाएँगे ?
न जाने कितने प्रश्न राजा शांतनु के मन में आ–जा रहे थे ।
उनके हृदय की वेदना बढ़ती जा रही थी । न जाने कहाँ से एक विचार उनके मन में उठा –
क्या हो अगर देवव्रत स्वयं ही अपने अधिकारों का त्याग कर
दे !
फिर से सत्यवती का मुख उनके नेत्रों के समक्ष घूम गया ।
और वह मादक सुगंध !
नहीं ! वह सत्यवती के बिना नहीं रह सकते ।
किन्तु , किस मुख से ऐसा स्वार्थपूर्ण प्रस्ताव वे
देवव्रत के समक्ष रखें ?
मानों अचानक से बिजली से कौंधी और उनका मस्तिष्क पुनः सजग
हुआ ।
नहीं ! अत्यंत निम्न कर्म है यह ! वे कदापि भरत – कुल के
यश को कलंकित नहीं कर सकते । भविष्य उन्हें ऐसी भूल के लिए कभी क्षमा नहीं करेगा ।
मन एवं मस्तिष्क के ऐसे संघर्ष से शांतनु का शरीर बलहीन
प्रतीत होने लगा । उन्हे लगा मानों यह भूमंडल घूम रहा है । इससे पूर्व कि वह रथ से
गिर पड़ते , वह रथ के मध्य में स्थित स्तम्भ का सहारा लेकर नीचे आसन पर बैठ गए ।
रथ कुछ समय के उपरांत राजमहल के प्रांगण में पहुँचा । वहाँ
का वातावरण अत्यंत अव्यवस्थित दिखा । मंत्रिगण अत्यंत चिंतातुर से वहाँ खड़े दिखे ।
सभी मानों महाराज की ही प्रतीक्षा कर रहे हों ।
राजा शांतनु के रथ से उतरते ही प्रधान अमात्य उनके समक्ष
पहुँचे । स्वयं के दुख से पीड़ित शांतनु अमात्य के मस्तक पर चिंता की लकीरों को
देखकर और भी विचलित हो उठे ।
प्रधान अमात्य ने कहा –
“ महाराज ! संकट का समय है । गन्धर्वों ने आक्रमण कर दिया
है । युवराज देवव्रत स्वयं सेना लेकर उ-पू सीमा की ओर गए हैं । “
कुछ क्षण को स्तब्ध रह गए शांतनु । फिर स्वयं को संभालते
हुए कहा –
“ गंधर्व अत्यंत शक्तिशाली हैं एवं युद्ध में छल करना उनकी
रणनीति का मुख्य हिस्सा होता है । ऐसे शत्रु से युद्ध करने के लिए आपने युवराज को
क्यों भेज दिया ? “
“ महाराज आपकी अनुपस्थिति में हमारे पास दूसरा कोई उपाय न
था । शत्रु ने बिना किसी सूचना के आक्रमण किया है । “
शांतनु के माथे पर बल पड़ गए । उनका पुत्र – प्रेम सजग हो
उठा ।
आह ! बालक ही तो है देवव्रत ! अल्पवय देवव्रत का इतने
शक्तिशाली शत्रु से युद्ध ! भीषण परिणाम भी हो सकते हैं ।
शांतनु शीघ्र ही रथ पर पुनः सवार हो गए एवं प्रधान अमात्य
से कहा –
“ अमात्य ! राज्य की आंतरिक सुरक्षा का प्रभार मैं आपको
सौंपता हूँ । अगर हमारी अनुपस्थिति में कोई संकट आता है तो सेना की आपातकालीन
टुकड़ी का प्रयोग कर सकते हैं । “
इतना कहकर शांतनु ने सारथी को उ – पू सीमा की ओर चलने का
संकेत किया ।
सारथी ने बिना विलंब किए रथ को उस ओर मोड दिया । कुछ समय
के उपरांत उनका रथ सीमा के पास पहुँचा । किन्तु , वहाँ का दृश्य परिवर्तित हो चुका था । गन्धर्वों की
सेना भाग खड़ी हुई थी । वहाँ मात्र हस्तिनापुर की सेना विद्यमान थी । सैनिकों के शव एवं रक्त से धरती पटी हुई थी ।
दोनों ओर से कई वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए थे ।
शव चाहे शत्रुपक्ष का हो या अपने पक्ष का – युद्धभूमि के
शव हमेशा मानव सभ्यता को चुनौती देते प्रतीत होते हैं । सभ्यता के विकास पर
व्यंग्य करते हुए , अट्टाहास करते हुए प्रतीत होते हैं ।
मानों कह रहे हों –
“ कर लिया विकास ! उन्नत से उन्नतर एवं उन्नत्तम की सीमा को स्पर्श करते –
करते फिर से उसी आदिम रक्त की प्यास जाग उठी तुममें । किसे छल रहे हो तुम ?
विकास तो बहुत किया किन्तु तुम्हारे हृदय का विकास अभी शेष है । थोड़ा विस्तार उसे
भी दे देते तो शायद उष्ण रक्त की धारा से मानवता को स्नान न करना पड़ता । “
सैनिकों के शवों के मध्य से गुजरते रथ में बैठे शांतनु का
हृदय और भी व्यथित हो उठा ।
क्या आवश्यकता है युद्ध की ? क्या भूमि का छोटा सा
अंश इन सैकड़ों सैनिकों के प्राण से अधिक महत्वपूर्ण है ?
गंधर्वराज के प्रति शांतनु के मन में घृणा और तीव्र हो उठी
। उनके हस्त धनुष पर और कस गए । किन्तु , शवों के अतिरिक्त न तो कहीं
चित्रांगद दिखे न ही उनकी सेना ।
सारथी ने रथ को देवव्रत के रथ के निकट ले जाकर रोक दिया ।
देवव्रत को सकुशल देखकर शांतनु के संतप्त हृदय को शांति मिली ।
क्रमशः ....
लेखक – राजू रंजन
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