महाभारत खंड - 1 युद्ध के बीज – 14

sunrise

प्रातःकाल का सूर्य क्षितिज से ऊपर उठ चुका था दासराज चिंतित से अपनी कुटिया के बाहर घास पर बैठे दूर शून्य में कहीं खोये थे इतने में धूल का गुबार उठता दिखा यह किसी रथ के तीव्र गति से आने का संकेत था दासराज ने अपनी दृष्टि मार्ग की ओर स्थिर कर दी

उनका पूर्वानुमान सत्य था यह एक राजकीय रथ था शायद महाराज शांतनु पधार रहे थे रात्रि में सत्यवती के मुख से निकला एक एक शब्द मानों दासराज के कानों में पुनः गूँजने लगा तो क्या सत्यवती ने भविष्य को देख लिया था ? रथ तीव्र गति से आता हुआ कुटिया के ठीक सामने आकर रुका आश्चर्य की बात थी कि साथ में कोई भी राजकीय आडम्बर नहीं था रथ एकाकी था रथ से राजा शांतनु सधे क़दमों से उतरे दासराज शीघ्रता से उठे एवं लगभग दौड़ते हुए जाकर महाराज का अभिवादन किया

हस्तिनापुर नरेश महाराज शांतनु की जय हो ! “

शांतनु ने भी हाथ जोड़कर सम्मान का प्रत्युत्तर दिया

दासराज ने कुटिया के भीतर से बाँस की खपच्चियों से बने एक आसन को लाकर  महाराज के समक्ष रखा एवं आसन ग्रहण करने का निवेदन किया थाल में जल लाकर अतिथि के पाँव पखारे तत्पश्चात कंद मूल , फल आदि प्रस्तुत कर ग्रहण करने का निवेदन किया महाराज सत्कार से प्रसन्न थे निर्धन दासराज ने आतिथ्य-धर्म का यथोचित पालन किया हस्त प्रच्छालित करने के उपरान्त महाराज पास खड़े दासराज से बोले

मैं किसी विशेष कार्य से आया था ! “

विशेष कार्य ! दासराज के अंतर्मन में हलचल उठी सत्यवती ने जो बताया था कहीं वही तो नहीं है यह विशेष कार्य !

महाराज ! मेरे अहोभाग्य कि आपका मुझसे कोई विशेष प्रयोजन है आज्ञा कीजिये ! “

शांतनु ने अपनी दृष्टि को दासराज के मुख पर स्थिर करते हुए कहा

मैं आपकी कन्या का पाणिग्रहण करना चाहता हूँ इस हेतु आपसे आशीर्वाद की आकांक्षा है

दासराज को कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि इस प्रस्ताव की आशा पहले से ही थी और उत्तर भी पहले से तैयार था

महाराज ! मेरी कन्या अत्यंत सौभाग्यशाली है कि हस्तिनापुर के नरेश उससे विवाह करना चाहते हैं किन्तु , अगर आप अभयदान दें तो कुछ निवेदन करना चाहता हूँ

अभयदान ! – इस शब्द से शांतनु के हृदय में कुछ शंका उत्पन्न हुई किन्तु , राजा से कुछ माँगा जाए एवं उसके मुख से तत्क्षण ही हाँ निकल जाए तो फिर राजा कैसा ! शांतनु के मुख से उसी क्षण निकल गया  –

निस्संकोच कहिये ! किसी भय की आवश्यकता नहीं

दासराज ने थोडा डरते हुए कहा

महाराज इस विवाह से पूर्व आपको मुझे एक वचन देना होगा

कैसा वचन ? “

यही कि सत्यवती की संतान ही राजसिंहासन पर बैठेगी

दासराज ने एक झटके में कह डाला एवं हाथ जोड़कर खड़े हो गए

शांतनु के मन को मानों तीव्र आघात लगा यह कैसा वचन है ? अचानक उनके आँखों के समक्ष देवव्रत की छवि घूम गयी हस्तिनापुर के सिंहासन पर मेरे बाद मात्र देवव्रत का ही अधिकार है एक पिता होकर इस प्रकार का वचन मैं कैसे दे सकता हूँ ? शांतनु का मन उद्वेलित हो उठा

दासराज ! आप यह कैसा वचन माँग रहे हैं ? अगर मैंने आपको श्वसुर की दृष्टि से नहीं देखा होता तो तत्क्षण आपको मृत्युदंड देता ऐसे अनैतिक वचन का क्या औचित्य है ? “

औचित्य है महाराज और मैं यह भी जानता हूँ कि यह माँग अनैतिक है किन्तु , मैं एक पिता हूँ और मुझे अपनी पुत्री का भविष्य किसी भी नैतिकता से अधिक प्रिय है

यह कैसा पुत्री प्रेम है - जिसे किसी के अधिकारों का हरण करके संतोष प्राप्त होता है अगर आपके मन में कोई संदेह है तो कहिये किन्तु , ऐसे अनुचित वचन हेतु मुझे विवश करें

महाराज ! धृष्टता क्षमा करें किन्तु , यह सर्वविदित है कि राजाओं के कई रानियाँ होती हैं उस समूह में मेरी पुत्री भी कहीं खो ना जाए मैं उसे सर्वदा प्रधान महारानी के रूप में ही देखना चाहता हूँ इसमें मेरा भी स्वार्थ है इस कन्या के उपरान्त मेरा कोई नहीं है अगर सत्यवती का पुत्र राजा बनेगा तो कदाचित किसी - - किसी प्रकार मेरा भी यश दीर्घकाल तक रहेगा अब चाहें कोई भी दंड दें, मेरी कन्या का विवाह इस वचन के देने के उपरान्त ही आपसे होगा चाहे तो आप बलात् मेरी कन्या का हरण कर सकते हैं क्योंकि आप शक्तिशाली है किन्तु , वह बलात् ही होगा मेरी सहमति से कदापि नहीं

जाने कैसे भयभीत दासराज का स्वर अंत आते आते अत्यंत दृढ हो गया

शांतनु विचलित हो उठे बलात् हरण की बात में उलाहना का स्वर था पूर्व में ही उलाहना देकर दासराज ने इस संभावना को भी समाप्त कर दिया था एक राजा आज एक निर्धन धीवर के समक्ष याचक बनकर खडा था और वह याचना भी पूरी होती नहीं दिख रही थी नहीं ! वह ऐसा नहीं कर सकते देवव्रत को कभी भी माँ एवं पिता का प्रेम एक साथ नहीं मिला माँ मिली तो पिता नहीं और आज पिता हैं तो माँ नहीं ऐसे पुत्र का अधिकार हरण ! कदापि नहीं ! और देवव्रत से योग्य तो संपूर्ण भारतवर्ष में कोई नहीं ऐसे योग्य पुत्र को अधिकारों से वंचित करके उनके मस्तक पर जो कलंक लगेगा उसके साथ कैसे जी पायेंगे वे ? महाराज शांतनु को हृदय में तीव्र वेदना का अहसास हुआ वह वहीं  आसन पर बैठ गए और मस्तक पर हाथ रख लिया

कुछ क्षण सोचकर महाराज अत्यंत दुखी मन से खड़े होकर बोले

दासराज ! मैं आपको कोई वचन नहीं दे सकता यह विवाह हो या हो , मैं अपने पुत्र को उसके अधिकारों से वंचित नहीं कर सकता

महाराज का स्वर अत्यंत दृढ था वे तीव्र गति से रथ की ओर बढे रथ पर आसीन होकर सारथी को चलने का संकेत दिया रथ धीरे धीरे मार्ग में लुप्त हो गया

दासराज जाते हुए रथ की ओर तबतक देखते रहे जबतक वह उनकी आँखों से ओझल नहीं हो गया    

सत्यवती कुटिया के भीतर से सबकुछ सुन रही थी शांतनु के जाने का अनुमान कर वह बाहर  आई सत्यवती को देखकर दासराज बोले

पुत्री ! महाराज शांतनु ने मेरे प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया किन्तु, मैं अब भी उसी प्रण पर अडिग हूँ विवाह होगा तो मेरे प्रस्ताव को स्वीकार करने के उपरान्त ही अन्यथा नहीं  “

सत्यवती का मुख मानों पीला पड़ने लगा

हाय ! यह कैसी विडंबना है उसका प्रेम आज उसे प्राप्त होते होते उससे छीन लिया गया

यमुना की लहरें आज बड़ी तीव्र गति से अपने किनारों पर प्रहार करती प्रतीत हो रही थीं ......

क्रमशः ....
लेखक – राजू रंजन 

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