प्रातःकाल का सूर्य क्षितिज से ऊपर उठ चुका था । दासराज चिंतित से अपनी कुटिया के बाहर घास पर बैठे दूर शून्य में कहीं खोये थे । इतने में धूल का गुबार उठता दिखा । यह किसी रथ के तीव्र गति से आने का संकेत था । दासराज ने अपनी दृष्टि मार्ग की ओर स्थिर कर दी ।
उनका पूर्वानुमान सत्य था । यह एक राजकीय रथ था । शायद महाराज शांतनु पधार रहे थे । रात्रि में सत्यवती के मुख से निकला एक – एक शब्द मानों दासराज के कानों में पुनः गूँजने लगा । तो क्या सत्यवती ने भविष्य को देख लिया था ? रथ तीव्र गति से आता हुआ कुटिया के ठीक सामने आकर रुका । आश्चर्य की बात थी कि साथ में कोई भी राजकीय आडम्बर नहीं था । रथ एकाकी था । रथ से राजा शांतनु सधे क़दमों से उतरे । दासराज शीघ्रता से उठे एवं लगभग दौड़ते हुए जाकर महाराज का अभिवादन किया ।
“ हस्तिनापुर नरेश महाराज शांतनु की जय हो ! “
शांतनु ने भी हाथ जोड़कर सम्मान का प्रत्युत्तर दिया ।
दासराज ने कुटिया के भीतर से बाँस की खपच्चियों से बने एक आसन को लाकर महाराज के समक्ष रखा एवं आसन ग्रहण करने का निवेदन किया । थाल में जल लाकर अतिथि के पाँव पखारे । तत्पश्चात कंद – मूल , फल आदि प्रस्तुत कर ग्रहण करने का निवेदन किया । महाराज सत्कार से प्रसन्न थे । निर्धन दासराज ने आतिथ्य-धर्म का यथोचित पालन किया । हस्त प्रच्छालित करने के उपरान्त महाराज पास खड़े दासराज से बोले –
“ मैं किसी विशेष कार्य से आया था ! “
विशेष कार्य ! दासराज के अंतर्मन में हलचल उठी । सत्यवती ने जो बताया था कहीं वही तो नहीं है यह विशेष कार्य !
“ महाराज ! मेरे अहोभाग्य कि आपका मुझसे कोई विशेष प्रयोजन है । आज्ञा कीजिये ! “
शांतनु ने अपनी दृष्टि को दासराज के मुख पर स्थिर करते हुए कहा –
“ मैं आपकी कन्या का पाणिग्रहण करना चाहता हूँ । इस हेतु आपसे आशीर्वाद की आकांक्षा है । “
दासराज को कोई आश्चर्य नहीं हुआ । क्योंकि इस प्रस्ताव की आशा पहले से ही थी । और उत्तर भी पहले से तैयार था ।
“ महाराज ! मेरी कन्या अत्यंत सौभाग्यशाली है कि हस्तिनापुर के नरेश उससे विवाह करना चाहते हैं । किन्तु , अगर आप अभयदान दें तो कुछ निवेदन करना चाहता हूँ । “
अभयदान ! – इस शब्द से शांतनु के हृदय में कुछ शंका उत्पन्न हुई । किन्तु , राजा से कुछ माँगा जाए एवं उसके मुख से तत्क्षण ही हाँ न निकल जाए तो फिर राजा कैसा ! शांतनु के मुख से उसी क्षण निकल गया –
“ निस्संकोच कहिये ! किसी भय की आवश्यकता नहीं । “
दासराज ने थोडा डरते हुए कहा –
“ महाराज इस विवाह से पूर्व आपको मुझे एक वचन देना होगा । “
“ कैसा वचन ? “
“ यही कि सत्यवती की संतान ही राजसिंहासन पर बैठेगी । “
दासराज ने एक झटके में कह डाला एवं हाथ जोड़कर खड़े हो गए ।
शांतनु के मन को मानों तीव्र आघात लगा । यह कैसा वचन है ? अचानक उनके आँखों के समक्ष देवव्रत की छवि घूम गयी । हस्तिनापुर के सिंहासन पर मेरे बाद मात्र देवव्रत का ही अधिकार है । एक पिता होकर इस प्रकार का वचन मैं कैसे दे सकता हूँ ? शांतनु का मन उद्वेलित हो उठा ।
“ दासराज ! आप यह कैसा वचन माँग रहे हैं ? अगर मैंने आपको श्वसुर की दृष्टि से नहीं देखा होता तो तत्क्षण आपको मृत्युदंड देता । ऐसे अनैतिक वचन का क्या औचित्य है ? “
“ औचित्य है महाराज । और मैं यह भी जानता हूँ कि यह माँग अनैतिक है । किन्तु , मैं एक पिता हूँ और मुझे अपनी पुत्री का भविष्य किसी भी नैतिकता से अधिक प्रिय है । “
“ यह कैसा पुत्री – प्रेम है - जिसे किसी के अधिकारों का हरण करके संतोष प्राप्त होता है । अगर आपके मन में कोई संदेह है तो कहिये किन्तु , ऐसे अनुचित वचन हेतु मुझे विवश न करें । “
“ महाराज ! धृष्टता क्षमा करें । किन्तु , यह सर्वविदित है कि राजाओं के कई रानियाँ होती हैं । उस समूह में मेरी पुत्री भी कहीं खो ना जाए । मैं उसे सर्वदा प्रधान महारानी के रूप में ही देखना चाहता हूँ । इसमें मेरा भी स्वार्थ है । इस कन्या के उपरान्त मेरा कोई नहीं है । अगर सत्यवती का पुत्र राजा बनेगा तो कदाचित किसी - न - किसी प्रकार मेरा भी यश दीर्घकाल तक रहेगा । अब चाहें कोई भी दंड दें, मेरी कन्या का विवाह इस वचन के देने के उपरान्त ही आपसे होगा । चाहे तो आप बलात् मेरी कन्या का हरण कर सकते हैं क्योंकि आप शक्तिशाली है । किन्तु , वह बलात् ही होगा मेरी सहमति से कदापि नहीं । “
न जाने कैसे भयभीत दासराज का स्वर अंत आते – आते अत्यंत दृढ हो गया ।
शांतनु विचलित हो उठे । बलात् हरण की बात में उलाहना का स्वर था । पूर्व में ही उलाहना देकर दासराज ने इस संभावना को भी समाप्त कर दिया था । एक राजा आज एक निर्धन धीवर के समक्ष याचक बनकर खडा था । और वह याचना भी पूरी होती नहीं दिख रही थी । नहीं ! वह ऐसा नहीं कर सकते । देवव्रत को कभी भी माँ एवं पिता का प्रेम एक साथ नहीं मिला । माँ मिली तो पिता नहीं और आज पिता हैं तो माँ नहीं । ऐसे पुत्र का अधिकार – हरण ! कदापि नहीं ! और देवव्रत से योग्य तो संपूर्ण भारतवर्ष में कोई नहीं । ऐसे योग्य पुत्र को अधिकारों से वंचित करके उनके मस्तक पर जो कलंक लगेगा उसके साथ कैसे जी पायेंगे वे ? महाराज शांतनु को हृदय में तीव्र वेदना का अहसास हुआ । वह वहीं आसन पर बैठ गए और मस्तक पर हाथ रख लिया ।
कुछ क्षण सोचकर महाराज अत्यंत दुखी मन से खड़े होकर बोले –
“ दासराज ! मैं आपको कोई वचन नहीं दे सकता । यह विवाह हो या न हो , मैं अपने पुत्र को उसके अधिकारों से वंचित नहीं कर सकता । “
महाराज का स्वर अत्यंत दृढ था । वे तीव्र गति से रथ की ओर बढे । रथ पर आसीन होकर सारथी को चलने का संकेत दिया । रथ धीरे – धीरे मार्ग में लुप्त हो गया ।
दासराज जाते हुए रथ की ओर तबतक देखते रहे जबतक वह उनकी आँखों से ओझल नहीं हो गया ।
सत्यवती कुटिया के भीतर से सबकुछ सुन रही थी । शांतनु के जाने का अनुमान कर वह बाहर आई । सत्यवती को देखकर दासराज बोले –
“ पुत्री ! महाराज शांतनु ने मेरे प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया । किन्तु, मैं अब भी उसी प्रण पर अडिग हूँ । विवाह होगा तो मेरे प्रस्ताव को स्वीकार करने के उपरान्त ही अन्यथा नहीं । “
सत्यवती का मुख मानों पीला पड़ने लगा ।
हाय ! यह कैसी विडंबना है उसका प्रेम आज उसे प्राप्त होते – होते उससे छीन लिया गया ।
यमुना की लहरें आज बड़ी तीव्र गति से अपने किनारों पर प्रहार करती प्रतीत हो रही थीं ......
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