महाभारत खंड - 1 युद्ध के बीज - 10

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किन्तु , देवव्रत ने प्रहार नहीं किया । शाल्व पीड़ा से कराहते हुए भूमि पर पड़े रहे । उनमें उठने की भी शक्ति शेष नहीं थी । देवव्रत ने शाल्व के रथ से एक लम्बी रस्सी को उठाया एवं उससे शाल्व के दोनों हाथ पीठ के पीछे ले जाकर बाँध दिए ।
"यह क्या कर रहे हो शांतनु पुत्र ? मैं युद्ध में हारा हुआ योद्धा हूँ । मुझे मृत्युदंड दो । युद्ध में वीरगति पाना मेरे लिए बंदी बनाये जाने से ज्यादा श्रेयस्कर है । "
" दंड देने का अधिकार मात्र विजेता को होता है । आपको मृत्युदंड मिलेगा अथवा बंदीगृह की यातना - यह चुनने का अधिकार आपका नहीं । अभी तो मैं आपको महाराज के पास ले जा रहा हूँ । आपके दंड का निर्णय वही करेंगे । "
देवव्रत ने इतना कहकर शाल्व को अपनी भुजाओं में उठाकर अश्व पर लाद दिया । स्वयं भी सवार होकर अश्व को एड लगाई । अश्व तुरंत ही तीव्र गति से दौड़ने लगा । कुछ समय के उपरान्त अश्व राजप्रासाद के निकट पहुँचा । देवव्रत के संकेत से दो प्रहरी निकट पहुंचे । उन्होंने बंदी शाल्व को अश्व से नीचे उतारा । प्रहरियों को अपने पीछे आने का संकेत देकर देवव्रत आगे बढ़ गए । प्रहरी शाल्व को लेकर उनके पीछे - पीछे चल पड़े । दोपहर का समय था । सूर्य आकाश के मध्य तक पहुँच चुका था । इस समय महाराज सभा - कक्ष में होंगे । अतः देवव्रत सभा - कक्ष की ओर चल पड़े । सभा - कक्ष में समस्त सभासदों के साथ राजा शांतनु किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर विचार - विमर्श कर रहे थे । देवव्रत एवं उनके पीछे - पीछे प्रहरियों से घिरे शाल्व को देखकर सम्प्पूर्ण सभा चकित हो उठी । देवव्रत महाराज के सिंहासन के पास जाकर रुके । उनका अभिवादन कर देवव्रत बोले -
" महाराज ! सभा के नियमित कार्य में व्यवधान के लिए क्षमा चाहता हूँ । किन्तु , यह संपूर्ण राज्य के लिए सर्वाधिक महतवपूर्ण था । कौशल - नरेश शाल्व बिना किसी सूचना के पूरी सेना के साथ हस्तिनापुर पर आक्रमण के लिए आये थे । संयोगवश मैं इन्हें मिल गया । इनकी हार्दिक इच्छा थी कि महाराज शांतनु अपना मुकुट इनके चरणों में समर्पित कर इनकी अधीनता स्वीकार करें । किन्तु , अत्यंत दुःख की बात है कि इनकी आधी सेना मेरे हाथों वीरगति को प्राप्त हो चुकी है एवं ये स्वयं बंदी बनकर आपके समक्ष उपस्थित हैं । युद्ध - अपराधी को दंड देने का अधिकार राजा का ही होता है । अतः मैं इन्हें आपके समक्ष लाया हूँ । "
हस्तिनापुर पर आक्रमण की बात सुनकर शांतनु का मुख रक्तवर्णी हो उठा । सामने सिर झुकाए शाल्व खड़े थे । संपूर्ण सभा में कानाफूसी होने लगी ।
"शाल्व ! हस्तिनापुर की ओर दृष्टि डालने का साहस कैसे किया आपने ? बिना सूचना के आक्रमण क्षत्रियों का नहीं अपितु कायरों का कार्य है । आपने क्षत्रिय - धर्म को कलंकित किया है । आपके साथ कैसा व्यवहार किया जाए ? "
शांतनु के क्रोधपूर्ण वचन को सुनकर शाल्व थोड़ी देर सिर झुकाए खड़े रहे । तत्पश्चात सिर ऊपर उठाकर कहा -
" महाराज ! जिस राज्य में देवव्रत जैसे वीर योद्धा हों उस राज्य की कभी पराजय नहीं हो सकती । निश्चय ही बिना सूचना के आक्रमण करके मैंने युद्ध के नियमों का उल्लंघन किया है । इसके लिए आप मुझे जो भी दंड देना चाहे मैं स्वीकार करने को तैयार हूँ । "
इतना कहकर शाल्व ने सिर नीचे झुका लिया । शाल्व के अपराध स्वीकार करने से शांतनु का क्रोध थोडा शांत हुआ । उन्होंने देवव्रत की ओर देखा और कहा -
" देवव्रत तुम्हार्री वीरता से हस्तिनापुर का यश बढा है । ऐसे वीर को पाकर हस्तिनापुर धन्य हुआ । कौशल - नरेश को दंड देने का अधिकार मैं तुम्हे सौंपता हूँ । तुम्हे जो उचित लगे वह दंड दो ।"
देवव्रत ने सिर झुकाकर शांतनु के आदेश को स्वीकारा एवं शाल्व की ओर मुड़कर बोले ।
" एक क्षत्रिय के लिए पराजय और बंदी बनने से बड़ा कोई दंड नहीं होता । शाल्व युद्धक्षेत्र में मुझसे मृत्युदंड की याचना कर रहे थे । यहाँ पूरी सभा के समक्ष इन्होने अपने अपराध को स्वीकार किया है । इनकी आधी सेना भी युद्धभूमि में वीरगति को प्राप्त हो चुकी है । अतः मेरे मत से इतना दंड इस वीर योद्धा के लिए काफी है । इन्हे मुक्त करके ससम्मान कौशल भेज दिया जाए । "
देवव्रत के निर्णय से शाल्व चकित रह गए । उनकी आँखों में पश्चाताप के आँसू छलक पड़े । परन्तु , उनके रुंधे गले से कोई शब्द नहीं फूटा । संपूर्ण सभा में देवव्रत की जय - जयकार होने लगी । महामंत्री उसी समय महाराज शांतनु के समक्ष आये एवं कहा ।
" महाराज ! देवव्रत ने अपने शौर्य से हस्तिनापुर को गौरवान्वित किया है । विजय की इस शुभ घडी में ही देवव्रत को हस्तिनापुर का युवराज घोषित कर दिया जाए ।
शांतनु को महामंत्री की उक्ति सही लगी । उन्होंने उसी समय देवव्रत को हस्तिनापुर का युवराज घोषित कर दिया । संपूर्ण राज्य में हर्ष की लहर दौड़ पड़ी । राज्य में उत्सव मनाया जाने लगा ।
हस्तिनापुर का सूर्य उदित हो चुका था ।
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देवव्रत ने राजा शांतनु के काम - काज को अपने कन्धों पर ले लिया । पिता शांतनु भी अपने पुत्र की योग्यता से अत्यंत संतुष्ट थे । समय को मानों पंख लग गए थे । देखते ही देखते चार वर्ष का समय व्यतीत हो गया ।
एक दिन आखेट करते हुए राजा शांतनु यमुना के तट पर जा पहुंचे । उन्हें कमल के पुष्पों की तीव्र सुगंध महसूस हुई । शायद यमुना में कमल के पुष्प खिले हों ऐसा सोचकर शांतनु यमुना के तट पर पहुंचे । परन्तु , आश्चर्य की बात यह थी कि यमुना के अंक में एक भी कमल का पुष्प नहीं दिखा । फिर इतनी तीव्र सुगंध ! - मानों सैकड़ों कमल के पुष्प खिले हों । राजा शांतनु सुगंध के स्रोत को जानने हेतु व्यग्र हो उठे । किन्तु , तट पर कोई नहीं दिखा । अचानक उनकी दृष्टि नदी के किनारे लगी एक नौका पर गयी ।
क्रमशः ................
लेखक - राजू रंजन  

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