महाभारत खंड - 1 युद्ध के बीज - 9

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थोड़ी ही देर में अश्व उस विशाल सेना के सामने पहुँच गया । देवव्रत ने अश्व को रोका ।
सेना के आगे -आगे चल रहे पताकायुक्त रथ में सवार योद्धा ने भी सेना को रुकने का संकेत किया ।
देवव्रत ने रथ के सामने पहुंचकर उस योद्धा से प्रश्न किया -
" इस सेना के साथ आपके आगमन का तात्पर्य क्या है ? "
उस योद्धा ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया -
" जब सेना चलती है तो उसका मात्र एक ही तात्पर्य होता है युवक !
और वह है युद्ध ! हस्तिनापुर को शाल्व की अधीनता स्वीकार करनी होगी . नहीं तो फिर युद्ध ही एकमात्र विकल्प है । "
" किन्तु, बिना किसी सूचना के आक्रमण - यह तो वीरोचित कार्य नहीं ?"
" युद्ध में हर कार्य वीरोचित ही होता है युवक ! वैसे तुम्हारा परिचय क्या है ? "
मैं  हस्तिनापुर नरेश महाराज शांतनु का पुत्र हूँ । "
" शांतनु के पुत्र ! तुम्हारा सही समय पर आगमन हुआ है । जाओ ! अपने पिता को सन्देश देकर आओ कि अपना मुकुट मेरे पैरों में रखने के लिए तैयार हो जाएँ । "
इतना कहकर शाल्व  ने जोर का अट्टाहास किया ।
इस कटुक्ति से देवव्रत का रोम - रोम जल उठा ।
" शाल्व-नरेश ! हस्तिनापुर का मुकुट पग में रख सके - ऐसा वीर इस पृथ्वी पर नहीं है । बिना सूचना के आक्रमण करके तुमने स्वयं ही अपनी वीरता को उजागर कर दिया ! "
देवव्रत के शब्दों में उपहास था ।
" देवव्रत ! अपने जीवन से प्रेम हो तो इसी समय यहाँ से प्रस्थान करो । अन्यथा तुम्हारे इस उपहास का दंड मात्र मृत्यु है ।"
" मुझे मृत्यु दंड कौन देना चाहेगा ? आप अकेले या फिर यह पूरी सेना ? " क्यों ? इतनी विशाल सेना को देखकर भयभीत हो रहे हो ? "
" मैं भयभीत नहीं हो रहा । अपितु , बस जानना चाहता हूँ कि मुझे सिर्फ आपका रक्त बहाना होगा या आपके साथ - साथ इस पूरी सेना का ?"
देवव्रत के शब्दों से शाल्व तिलमिला उठे .
" सावधान युवक ! तुम्हे मृत्यु पुकार रही है । "
देवव्रत ने मंत्रोच्चारण कर अपने हाथ आकाश की ओर फैला दिए ।
तुरंत एक धनुष और तरकस उनके हाथों में प्रकट हुआ । देवव्रत तरकस को पीठ पर बाँधकर अश्व को थोडा पीछे ले गए एवं जोर से बोले -
" शाल्व ! हस्तिनापुर - विजय तो दूर की बात है । मेरी अनुमति के बिना तुम्हारी सेना एक पग भी नहीं बढा सकती ।"
मन में उच्चारण करते हुए देवव्रत ने पहला तीर चलाया । तीर जाकर शाल्व के रथ से कुछ दूरी पर भूमि पर गिरा । तीर के भूमि पर गिरते ही अग्नि उत्पन्न हुई एवं अग्नि की लपटों ने पूरी सेना के मार्ग को घेर लिया । अग्नि की तेज लपटों एवं भीषण ताप से सेना पीछे हटने लगी । शाल्व के घोड़े भी अग्नि की उष्णता के कारण पीछे हटने लगे ।
यह युद्ध का उद्घोष था !
शाल्व ने धनुष पर बाण चढ़ाया और देवव्रत की ओर छोड़ा । किन्तु , देवव्रत के धनुष से निकले बाण ने उसे बीच में ही खंडित कर दिया । देवव्रत ने पुनः मंत्रोच्चार किया एवं एक विशेष बाण छोड़ा । उस बाण के आगे बढ़ते ही उससे हजारों की संख्या में बाण निकलने लगे । सेना के ऊपर बाणों की वर्षा होने लगी । शाल्व की सेना में भगदड़ मचने लगी । हर ओर से बस बाण ही बाण बरसने लगे । ऐसी चमत्कारी धनुर्विद्या को देखकर शाल्व के मस्तक से पसीने छूटने लगे । कुछ ही पलों में सैनिकों के अंगों से रक्त के फव्वारे छूटने लगे ।
किन्तु , बाणों की वर्षा में किसी प्रकार की कमी नहीं हुई । देवव्रत अत्यंत तीव्र गति से बाण चला रहे थे । अंततः अपने प्राणों की रक्षा के लिए सेना पीछे की ओर भागने लगी । शाल्व ने सेना को रुकने का आह्वान किया । किन्तु , उस आह्वान का कोई प्रभाव नहीं पड़ा । भागती सेना को देखते असहाय शाल्व अपने ही स्थान पर टिके रहे । सहसा एक बाण आकर उनके धनुष पर लगा और धनुष के दो टुकड़े हो गए ।
अग्नि की लपटों से घिरे शाल्व अत्यंत असहाय दिखे । आधी सेना के शव भूमि पर बिखरे पड़े थे एवं आधी सेना भाग चुकी थी । अब मात्र शाल्व ही उस सेना में एकमात्र जीवित व्यक्ति थे ।
इस पराजय से भी उनका मन हताश नहीं हुआ था ।
" देवव्रत ! चमत्कारी बाणों के प्रयोग से शत्रु को हराने में कोई वीरता नहीं । लौकिक युद्ध से अपनी वीरता का परिचय दो तो मानूंगा की तुम वीर हो । "
" जब सामने पूरी सेना खड़ी हो तो लौकिक शस्त्रों का प्रयोग व्यर्थ होता है शाल्व ! किन्तु, अब आप भी एकाकी हो और मैं भी । अब आप चाहे किसी भी अस्त्र - शस्त्र का चुनाव कर लें । मैं तैयार हूँ । "
इतना कहकर देवव्रत ने एक बाण आकाश की ओर चलाया । आकाश से जल की वर्षा होने लगी एवं आग की लपटें बुझ गयीं । अब देवव्रत एवं शाल्व के मध्य अग्नि की विभाजक रेखा मिट चुकी थी ।
अपने सैनिकों के शवों को देखकर व्यथित शाल्व के लिए यह उपयुक्त अवसर था । शाल्व ने एक गदा को हाथ में उठाकर देवव्रत की ओर उछाला एवं दूसरी गदा को अपने हाथों में धारण किया । देवव्रत ने उस फेंके गए गदा को लपक लिया ।
" युवक ! अब अपनी मृत्यु के लिए तैयार हो जाओ । " - ऐसा कहते हुए शाल्व देवव्रत की ओर बढे ।
प्रत्युत्तर में देवव्रत मात्र मुस्कुराए ।
धातु की गदाएँ एक - दूसरे से टकरायीं और तीव्र ध्वनि वातावरण में गूँज उठी । दोनों एक - दूसरे पर भीषण प्रहार करने लगे । देवव्रत का लम्बा कद उनके प्रहार को और भी आक्रामक बना रहा था । शाल्व को न चाहते हुए भी उन प्रहारों से बचना पड रहा था । कुछ देर तक दोनों एक - दूसरे पर प्रहार करते रहे । अचानक अवसर देखकर देवव्रत ने शाल्व के दाहिने कंधे पर प्रहार किया । प्रहार अत्यंत घातक था । शाल्व दूर जा गिरे । जैसे ही वह खड़े हुए देवव्रत ने पुनः दूसरे कंधे पर प्रहार किया । शाल्व  चोट खाकर पुनः गिर पड़े । इस बार जैसे ही खड़े होकर उन्होंने गदा को ऊपर की ओर उठाया गदा का एक मजबूत प्रहार उनकी छाती पर पडा । उनके हाथ से गदा छूट गयी एवं वह भूमि पर गिर पड़े । देवव्रत गदा उठाये उनके सिर के पास खड़े थे । मात्र एक प्रहार शाल्व की जीवन - लीला को समाप्त करने के लिए पर्याप्त था ।
क्रमशः .......
लेखक - राजू रंजन  

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