महाभारत खंड - 1 युद्ध के बीज - 8

white horse


थोडा ऊपर उठने के बाद जलराशि स्थिर हो गयी । सामने जो शांतनु ने देखा उसपर उनकी आँखों को विश्वास नहीं हो रहा था । गंगा उस युवक का हाथ पकडे खड़ी थी । दोनों धीरे - धीरे चलकर उनके पास आये । गंगा ने आते ही अभिवादन किया एवं कहा-
" राजन ! यही है आपका पुत्र देवव्रत ! " गंगा ने उस युवक की तरफ संकेत किया ।
देवव्रत ने आगे बढ़कर शांतनु के चरणस्पर्श किये । शांतनु का हृदय भर आया । उन्होंने देवव्रत को गले से लगा लिया ।
" मेरा पुत्र ! आयुष्मान भवः ! " शांतनु की आँखों में ख़ुशी के आंसू थे ।
" हाँ ! आपका पुत्र ! अब वह नियत समय आ चुका है जब मैं आपको आपका पुत्र सौंप दूं । मैंने देवव्रत की शिक्षा में किसी प्रकार की कमी नहीं की है । देवव्रत ने महर्षि वशिष्ठ से समस्त वेदों की शिक्षा ग्रहण की है । देवराज बृहस्पति एवं दैत्यराज शुक्राचार्य से नीति एवं विभिन्न विद्याओं को सीखा है । अपराजेय भार्गव परशुराम से संपूर्ण अस्त्र- शस्त्रों की शिक्षा पायी है । आपका यह पुत्र आपके यश को तीनों लोकों में फैलाएगा । "
इतना कहकर गंगा राजा शांतनु की ओर देखने लगी ।
" देवव्रत की धनुर्विद्या का परिचय मैं कुछ समय पहले पा चुका हूँ । मैं ऐसे पुत्र को पाकर धन्य हो गया ।"
" राजन ! मैं अब आज्ञा चाहती हूँ । आज से देवव्रत को मैं आपको सौंपती हूँ । "
" क्यूँ ? गंगे ! क्या इतना दंड काफी नहीं है ? मैं सोलह वर्ष तक अपनी पत्नी एवं पुत्र से दूर रहा । अब तो साथ चलो । हस्तिनापुर की जनता सिर्फ अपने युवराज को ही नहीं अपनी महारानी को भी वापस पाना चाहती है । मैं एकाकी जीवन जीते - जीते थक चुका हूँ । "
शांतनु का गला रूंध गया ।
" नहीं महाराज ! यह नहीं हो सकता । आपका और मेरा साथ उतने ही समय तक था । वैसे भी अब आप एकाकी नहीं । अब हर क्षण यह पुत्र आपके साथ रहेगा । "
इतना कहकर गंगा देवव्रत की ओर मुड गयी ।
" पुत्र ! कभी भी अपनी माता की स्मृति हो तो यहाँ आ जाना । माता का स्नेह सदैव तुम्हारे साथ है । "
 गंगा ने अपने कदम नदी की ओर बढा दिए । अविरल प्रवाहित होती जलराशि में धीरे - धीरे गंगा समाविष्ट हो गयी ।
* * * * * *
शांतनु को अपना पुत्र मिल गया एवं हस्तिनापुर को अपना युवराज ! वर्षों बाद हस्तिनापुर को उतराधिकारी की चिंता से मुक्ति मिली । संपूर्ण राज्य उत्सवमय वातावरण में डूब गया । राजा शांतनु के सुख का कोई पारावार नहीं था । नित्य पुत्र के लिए नूतन वस्तुओं की व्यवस्था करते । दुर्लभ फल , मिष्ठान्न , आभूषण, रत्न इत्यादि देवव्रत को प्रतिदिन उपलब्ध कराया जाने लगा । मानों शांतनु सोलह वर्षों से दमित स्नेह को शीघ्रातिशीघ्र अपने पुत्र पर लुटा देना चाहते हों ।
सुख के दिवस बड़ी शीघ्रता से बीतते हैं । ऐसे ही समय बीतने लगा । एक दिन प्रातःकाल शांतनु ने पुत्र को बुलावा भेजा । देवव्रत शीघ्र ही पहुंचे ।
शांतनु अत्यंत हर्षित दिखे ।
" आओ पुत्र ! देखो तुम्हारे लिए कैसा सुन्दर उपहार है ! "
 सामने एक श्वेत अश्व खड़ा था । अश्व की शोभा से प्रतीत हो रहा था कि वह अत्यंत दुर्लभ प्रजाति का था ।
" पुत्र ! यह अश्व प्रवासी व्यापारी लेकर आये हैं । यह हस्तिनापुर  के युवराज के ही योग्य है । "
देवव्रत ने अश्व की ओर देखा । वे उसके निकट जाने लगे । तभी व्यापारी ने सावधान किया ।
" राजकुमार ! सावधान ! आजतक इस अश्व ने मेरे अलावा किसी को भी अपने ऊपर सवार नहीं होने दिया । मैं कई राज्यों में इसे लेकर घूमा । मुझे कोई योग्य क्रेता नहीं मिला । इसे वहीँ बेचूंगा जो इस अश्व को अपने वश में कर सके . "
शांतनु ने देवव्रत को रुकने का संकेत किया । तदुपरांत अपने पास खड़े अंगरक्षक को अश्व पर सवार होने का आदेश दिया । अंगरक्षक ने आगे बढ़कर वल्गा को हाथ लगाया । हाथ लगाते ही अश्व ने जोर से हिनहिनाते हुए अपने आगे के दोनों पाँव उठा लिए एवं अंगरक्षक को जोर का झटका दिया । वह दूर जा गिरा । वह तुरंत उठा एवं क्रोध से भरकर पुनः वल्गा को पकड़ना चाहा । अश्व ने घूमकर उसे दूर धकेल दिया । इस बार अंगरक्षक को जोर की चोट लगी । वह दूर पीड़ा से कराहता हुआ खडा हुआ ।
" यह अश्व तो काफी घातक है । ऐसे अश्व से राजकुमार को क्या काम ? यह तो राजकुमार को हानि पहुंचा सकता है । हमें ऐसा अश्व नहीं चाहिए । ले जाओ इसे ! "
शांतनु क्रोध से बोले .
व्यापारी थोड़ा सहम गया और अपना सिर नीचे कर लिया ।
देवव्रत आगे आये ।
" पिताश्री ! अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं प्रयास करूँ ? "
देवव्रत के होठों पर हल्की मुस्कान थी ।
" नहीं ! ऐसे खतरनाक अश्व की तुम्हे कोई आवश्यकता नहीं ! "
" किन्तु , पिताश्री ! खतरों से खेलना ही तो क्षत्रिय का कर्म है । अगर क्षत्रिय आसन्न संकट के भय से पीछे हटने लगे तो फिर उसे क्षत्रिय कहलाने का कोई अधिकार नहीं । और फिर यह तो मात्र एक अश्व है । शायद हस्तिनापुर में ही इस व्यापारी को इस अश्व का क्रेता मिल जाए । "
देवव्रत ने उपहास के स्वर में कहते हुए व्यापारी की ओर देखा । देवव्रत की बात व्यापारी को चुभ गयी ।
" क्षमा चाहता हूँ महाराज ! अगर प्राणदान मिले तो कुछ कहूँ ! "
" अभय होकर कहो । " -शांतनु ने कहा ।    
  " वीर अपनी वीरता की घोषणा मात्र शब्दों से नहीं करते । अपने कर्म से वीरता प्रदर्शित करते हैं । मेरा उपहास उड़ाने से अच्छा होगा कि राजकुमार इस अश्व को नियंत्रित कर दिखाएँ । अगर वे ऐसा कर पायें तो तो मुझे भी अपने अश्व को ऐसे वीर को सौंपकर प्रसन्नता होगी । "
व्यापारी के उपालम्भयुक्त शब्दों ने शांतनु के मर्म पर आघात किया । पुत्र-प्रेम से आच्छादित क्षत्रिय स्वभाव प्रकट हुआ ।
" जाओ पुत्र ! चुनौती स्वीकार करो । " - शांतनु ने आदेश दिया ।
देवव्रत सहज भाव से मुस्कुराते हुए आगे बढे । उनके मुख पर भय का कोई चिह्न नहीं था । अश्व के पास पहुँचकर उन्होंने वल्गा को स्पर्श किया । अश्व पूर्ववत जोर से हिनहिनाया एवं अपने आगे के दोनों पैर ऊपर उठा लिए । देवव्रत ने एक हाथ से वल्गा पर पकड़ बनाये रखी एवं पलक झपकते ही दूसरे हाथ से अश्व के आगे उठे एक पैर को थाम लिया । अश्व ने झटका देना चाहा । किन्तु , उन्होंने अपनी पकड़ को और दृढ कर दिया । अश्व अपने पैर को भूमि पर टिका नहीं पा रहा था । कुछ देर यूँ ही रूककर देवव्रत ने अचानक अश्व के पैर को छोड़ दिया । अश्व मानों बंधन से मुक्त हुआ हो । उसने अपने पैर को भूमि पर टिकाया । इतने ही समय में शीघ्रता से राजकुमार छलांग लगाकर उसकी पीठ पर सवार हो गए एवं दोनों हाथों से वल्गा को जोर से खींचा । अश्व पुनः अपने दोनों पैर उठाकर हिनहिनाया । किन्तु, देवव्रत विचलित नहीं हुए । कुछ समय तक अश्व अपने ही स्थान पर गोल - गोल घूमकर उन्हें गिराने का प्रयास करता रहा । देवव्रत ने पुनः वल्गा को जोर से खींचा एवं उसे ढीला छोड़ दिया । अश्व धीरे - धीरे शांत हो गया .
देवव्रत ने मुस्कुराते हुए व्यापारी को लक्ष्य कर कहा -
" व्यापारी ! आपको मनचाहा मूल्य मिलेगा । कुछ भी मांग लो । "
व्यापारी ने अपना सिर झुका लिया ।
" आपकी वीरता को नमन करता हूँ । अपने कटु शब्दों के लिए क्षमा चाहता हूँ । "
" पिताश्री ! अगर आज्ञा हो तो मैं इस अश्व पर बैठकर राज्य का भ्रमण कर आऊं । "
शांतनु के मुख पर संतोष था । उन्होंने हँसते हुए कहा -
" जाओ पुत्र ! आज्ञा है । "
देवव्रत ने एड लगाई एवं अश्व तीव्र गति से चल पडा । अश्व की गति असामान्य रूप से तीव्र थी । मार्ग पर धूल उड़ाता अश्व चला जा रहा था । देवव्रत कुछ ही समय में राज्य की सीमा तक जा पहुँचे । सामने का दृश्य चौंकाने वाला था । टिड्डी-दल की भाँति दूर से एक विशाल जनसमूह आता दिखा । जैसे - जैसे अश्व निकट पहुँचता गया दृश्य स्पष्ट होने लगा ।
हाँ ! यह एक विशाल सेना थी । पदाति , अश्वारोही एवं गज पर सवार क्रम से सजी एक विशाल सेना हस्तिनापुर में प्रवेश कर रही थी । राजकुमार देवव्रत की भृकुटी तन गयी ।
सेना का आगमन ! बिना सूचना के !
अर्थात शत्रु का आक्रमण ! देवव्रत की इन्द्रियाँ सजग हो उठीं एवं रोम - रोम में क्रोध भड़क उठा । उन्होंने अश्व को एड लगाकर उसकी गति और तीव्र कर दी ।
क्रमशः ...............
लेखक - राजू रंजन    


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