महाभारत खंड -1 युद्ध के बीज - 4

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सूर्य आकाश के मध्य तक पहुँच चुका था । शांतनु के दुखों का कोई अंत नहीं था । तभी सारथी रथ लेकर पहुँचा । शांतनु राजप्रासाद लौट गए । उनका दिया गया वचन उन्हें रानी से किसी भी प्रकार के प्रश्न की अनुमति नहीं देता था । इस दुखद घटना ने उनके हृदय पर गहरा आघात किया था । कुछ दिनों तक राजा ने नितांत एकाकी जीवन व्यतीत किया । किन्तु, रानी के रूप - सौंदर्य एवं मधुर बातों में धीरे - धीरे सबकुछ विस्मृत हो गया ।
समय काफी तीव्र गति से बीतने लगा । पुनः राजा शांतनु को संतान की प्राप्ति हुई । उन्हें आशा थी कि इस बार उनके साथ वैसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं होगी । किन्तु , ऐसा नहीं हुआ । एक बार पुनः रानी ने उनके पुत्र को उनकी आँखों के सामने गंगा में प्रवाहित कर दिया । एक - एक कर सात पुत्रों को रानी ने गंगा में प्रवाहित कर दिया । हर बार राजा शांतनु विवश थे ।
आठ वर्ष बीत चुके थे । एक बार पुनः खुशियों ने राजा शांतनु के भाग्य के द्वार को खटखटाया । सात पुत्रों को खोने के उपरान्त राजा का हृदय भी कठोर हो चला था । इस बार उनके मन में द्वंद्व था ।
ऐसे वचन का पालन करने से क्या लाभ जिसके लिए अपने ही पुत्र के प्राणों की आहुति देनी पड़े ।
सात पुत्रों के जीवन की हानि के उपरान्त भी क्यों इस वचन का पालन हो ?
हस्तिनापुर के सिंहासन को युवराज चाहिए । राज्य का हित बड़ा है अथवा उनके स्वयं का स्वार्थ ?
मात्र अपनी इच्छाओं एवं प्रेम को जीवित रखने के लिए वो संपूर्ण राज्य का अहित नहीं कर रहे ?
इन आठ वर्षों में प्रजा पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया । मात्र अपने प्रेम में ही लीन रहे । भविष्य उन्हें एक ऐसे राजा के रूप में याद करेगा जिसने अपने प्रेम को खोने के भय से अपनी संतान के प्राणों की आहुति दे दी ।
क्या ऐसे इतिहास के निर्माण से उनका भरतवंश कलंकित नहीं होगा ?
ऐसे ही कई प्रश्नों से जूझते शांतनु ने अंततः निर्णय ले लिया ।
जिसने जाने का निश्चय कर लिया हो उसे वचन की डोर से कबतक बाँधा जा सकेगा ?
इस बार हस्तिनापुर को अपना युवराज अवश्य मिलेगा !
मेरा निश्चय अटल है !
राजा शांतनु ने अपने मन को तैयार कर लिया था ।
शांतनु को संतान की प्राप्ति हुई । किन्तु , न प्रजा में न ही राजपरिवार में कोई उल्लास था । सात बार अपने युवराज को खोने के उपरान्त प्रजा भी इसे ही अपनी नियति मान चुकी थी । प्रजा के मन में असंतोष के बीज धीरे - धीरे उग आये थे । परंतु , अभी उसके प्रकट होने में विलम्ब था । किसी भी उल्लास का न होना शायद उसी दबे असंतोष को व्यक्त कर रहा था ।
*   *   *   *   *
राजा शांतनु को नींद नहीं आ रही थी । इस बार उन्हें अपने पुत्र की रक्षा करनी थी । रात्रि के प्रहर बीतते गए । किन्तु , शांतनु जागते रहे । पुनः ब्रह्ममुहूर्त की वह कठिन घडी आई । रानी पूर्ववत पुत्र को अपने हाथों में उठाये तीव्र गति से द्वार से निकली । राजा शांतनु पूरी तरह तैयार थे । वह शीघ्र ही पीछे चल पड़े । राजमहल के प्रांगण से बाहर आते ही वह पहले से तैयार अश्व पर बैठ गए ।  अश्व तीव्र गति से चल पड़ा । किन्तु , इस बार रानी की गति भी अत्यंत तीव्र थी । ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों वह वायु पर तैर रही हो । वन को पार कर वह नदी तट की ओर बढ़ी ।
अश्व पर सवार शांतनु रानी के अत्यंत निकट पहुँच गए ।
उन्होंने पीछे से जोर से आवाज़ दी -
" हे रानी ! मैं हस्तिनापुर का महाराज शांतनु आज अपने सारे वचन तोड़ने की घोषणा करता हूँ । "
राजा का स्वर वातावरण में गूँज उठा । इस स्वर को सुनते ही रानी के कदम रुक गए । वह वहीं रुक गयी और मुड़कर शांतनु की ओर देखने लगी ।
व्यग्र से शांतनु शीघ्र ही अश्व से उतरकर रानी के समक्ष पहुंचे एवं नवजात शिशु को उनके हाथों से छीन लिया ।
उन्होंने शिशु को अपने हृदय से लगा लिया ।
" नहीं ! अब और नहीं ! मेरा यह पुत्र जीवित रहेगा । हाँ ! जीवित रहेगा ।"
राजा के स्वर में संतुष्टि का भाव था ।
उन्होंने अपना मस्तक उठाया एवं दृष्टि रानी पर स्थिर की ।
" मैं अपने सारे वचन तोड़ता हूँ ।
तुम कौन हो ?
अप्सरा हो या कोई मायावी राक्षसी ?
तुमने क्यों मेरे सात पुत्रों की हत्या की ?
मुझे इन प्रश्नों के उत्तर चाहिए । "
शांतनु के स्वर में क्रोध था ।
रानी के मुख पर क्रोध का लेश मात्र भी नहीं था । वह अब भी मुस्कुरा रही थी ।
" राजन् ! लगता है मेरे प्रस्थान का समय आ गया है । किन्तु , मैं प्रस्थान करने से पहले आपके सभी प्रश्नों का उत्तर दूँगी । मैंने पूर्व में भी कहा था कि जिस दिन आप अपना वास्तविक परिचय जान जायेंगे उसी क्षण मेरा परिचय भी आपको मिल जायेगा । "
" मेरा परिचय ! मैं शांतनु हूँ । यही तो है - मेरा परिचय ! "
" नहीं महाराज ! आपका यह पूर्ण परिचय नहीं है । आपको एक कथा सुनाती हूँ । तत्पश्चात आपको ज्ञात होगा कि आप कौन है ? मेरा परिचय क्या है ?
क्रमशः ............
लेखक - राजू रंजन

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