महाभारत खंड -1 युद्ध के बीज -1

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आज पुनः राजा शांतनु का रथ सबसे आगे निकल गया था । मृग का पीछा करते - करते सैनिकों की टुकड़ी कहीं पीछे छूट गयी थी । आखेट का आनंद तभी पूरा हो सकता था जब शांतनु का तीर उस मृग को बेध देता । किन्तु , आज निराशा ही हाथ लगने वाली थी ।
मृग की चाल में एकरूपता नहीं थी । वह भागते समय कभी दायें तो कभी बाएं हो जाता और हर बार शांतनु का निशाना चूक जाता ।
अंततः मृग कहीं झाड़ियों में लुप्त हो गया । क्लांत एवं निराश राजा को विश्राम के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं सूझा । रथ को गंगा नदी के किनारे एक वृक्ष की छाया में रोकने का आदेश देकर राजा धनुष नीचे रखकर बैठ गए ।
निराश बैठे शांतनु दूर कहीं शून्य में दृष्टि टिकाये अपनी असफलता की मीमांसा कर ही रहे थे कि सहसा दूर नदी के तट पर एक स्त्री आकृति दिखी । घने वनों के इस पार गंगा के तट पर एक स्त्री का होना आश्चर्य की बात थी । राजा ने धनुष को संभाला एवं रथ से उतरकर पैदल ही उस ओर बढ़ चले ।
जैसे - जैसे वो निकट पहुँचते गए , एक अदभुत आकर्षण से उनकी चाल तीव्र से तीव्रतर होती चली गयी । उस स्त्री के अप्रतिम सौंदर्य ने शांतनु के चित्त को हर लिया ।
मध्यम कद , पतली नासिका  , मृग के समान चंचल नयन , नुकीली अर्द्धचंद्राकार भौंहे, कमल की पंखुड़ियों के समान अधर , लंबी ग्रीवा , उन्नत वक्ष , मत्स्याकार कटि प्रदेश , कमर तक फैली सुदीर्घ केशराशि एवं स्वर्णिम कांति से युक्त गौर वर्ण शरीर धवल श्वेत स्निग्ध वस्त्रों में अपने अद्भुत सौंदर्य से परिपूर्ण दिख रहा था । मानो यह अप्रतिम सौंदर्य स्वर्ग से सीधे पृथ्वी पर अवतीर्ण हुआ हो ।
शांतनु उसे निर्निमेष निहारने लगे । वह मानों उस सौंदर्य को देखकर स्तंभित हो गए । उनके मुख से एक शब्द भी नहीं निकल रहा था ।
उस सुंदरी ने उस प्रेममय नीरवता को भंग किया -
" आप जैसे प्रतापी नरेश को यह आचरण शोभा नहीं देता ! "
इन शब्दों से शांतनु की लुप्त होती चेतना पुनः लौटी । उन्हें स्वयं का भान हुआ । स्वयं को नियंत्रित करते हुए बोले -
" हे देवी ! आपका सौंदर्य ही ऐसा है कि मुझ जैसे राजा का आचरण भी संदिग्ध हो उठा । इसके लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ । कृपया अपना परिचय दें । "
उस सुंदरी ने प्रत्युत्तर में हल्की मुस्कान के साथ अपने कदम बढ़ा दिए और देखते - देखते ही वह कहीं लुप्त हो गयी । वह मुस्कान अत्यंत मारक थी । शांतनु का चित्त पूर्ण रूप से अशांत हो उठा । उनके नेत्रो के समक्ष कोई भी नहीं था । किन्तु , वह सौंदर्य उनके चित्त में गहरे तक उतर चुका था । जब वह सुंदरी कही नहीं दिखी तो शांतनु वापस लौट आये ।
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आखेट न कर पाने की निराशा को शांतनु विस्मृत कर चुके थे । अब रह - रह कर सिर्फ वही मुखमंडल उनके मनो - मस्तिष्क में घूम रहा था । राजप्रासाद के सारे सुख के साधन आज फीके - से लग रहे थे । किसी भी कार्य में राजा का मन नहीं लगा । रात्रि के समय भी शयनकक्ष में सिर्फ करवटें बदलते रहें । वह मधुर शब्द बार - बार कानों में गूंज रहा था -
" आप जैसे प्रतापी नरेश को यह आचरण शोभा नहीं देता ! "
उस स्वर में उपालम्भ था किन्तु प्रेमपूर्ण उपालम्भ !
रात्रि के प्रहर ऐसे ही बीतते गए । किन्तु शांतनु से निद्रा कोसों दूर थी । मन व्याकुल था । बस सूर्योदय की प्रतीक्षा थी ।
सूर्योदय होते ही शांतनु का मन अनियंत्रित अश्व की भाँति व्यवहार करने लगा । वह प्रातः ही गंगा नदी के तट की ओर निकल पड़े ।
पुनः उसी स्थान पर जाकर प्रतीक्षा करने लगे ।
शायद वह सुंदरी आज पुनः दिखे ! कौन थी वह ?
न जाने कितने विचार शांतनु के मन में आ और जा रहे थे । और हर विचार के पीछे बस एक ही लालसा थी - उस सौंदर्य का पुनः दर्शन करना ।
प्रतीक्षा का एक - एक क्षण युगों के समान बीत रहा था । परंतु , नियति कितनी निष्ठुर थी ।
आकाश में सूर्य धीरे - धीरे पूर्व से पश्चिम दिशा तक जा पहुंचा । संध्या का आकाश भी प्रणय से पीड़ित शांतनु की पीड़ा को मानों और भी बढ़ाने पर तुला था । सूर्य क्षितिज पर डूबने को तत्पर था और चंद्र का उदय हो रहा था । शांतनु की दृष्टि दूर क्षितिज पर जा टिकी । सूर्य एवं चंद्र के मिलन का यह दृश्य उनके हृदय की पीड़ा को असह्य बनाने लगा ।
जब निराश राजा जाने को उद्यत हुए तो सहसा सामने वह अप्रतिम सौंदर्य प्रकट हुआ । उस सुंदरी के अधरों पर वही मोहक मुस्कान थी जो शांतनु के चित्त को बेध रही थी ।
शांतनु उसकी ओर बढे । किन्तु, आगे बढ़ते ही वह पुनः लुप्त हो गयी । राजा पुनः उसकी प्रतीक्षा करने लगे किन्तु वह नहीं दिखी । अंततः शांतनु वापस लौट गए ।
अब राजा शांतनु का चित्त किसी भी कार्य में नहीं लग रहा था । निद्रा से शून्य नेत्रों के नीचे काली धारियां सुस्पष्ट होने लगीं । स्वास्थ्य पर इसका प्रतिकूल प्रभाव भी सहज ही दिखने लगा ।
वह प्रतिदिन क्रम से गंगा नदी के तट पर जाने लगे । किन्तु , प्रतिदिन उन्हें उस अप्रतिम सौंदर्य को बस एक क्षण निहारने का अवसर मिलता और वह कहीं लुप्त हो जाती ।
आज पुनः वह सौंदर्य अपनी एक झलक दिखलाने के उपरान्त विलुप्त हो गया ।
विरह की अग्नि मनुष्य के मस्तिष्क पर अपना आधिपत्य जमा लेती है । तत्पश्चात शेष रहता है तो मात्र एक उन्मादित मन ! जिसपर मनुष्य का कोई नियंत्रण नहीं रहता । शांतनु के हृदय का उन्माद शायद आज चरम पर था । उस एक क्षण के दर्शन से उनके मन को तृप्ति नहीं मिली । उन्होंने निश्चय कर लिया कि आज अपने हृदय की संपूर्ण व्यथा को प्रकट किये बिना वो यहाँ से प्रस्थान नहीं करेंगे । वह यूँ ही प्रतीक्षा करते रहे ।
धीरे - धीरे सूर्य क्षितिज से नीचे उतरने लगा । सारथी व्यग्र हो उठा । उसकी व्यग्रता को देखकर शांतनु ने कहा -
" सारथी ! तुम्हे प्रस्थान करने की आज्ञा है । मैं अभी यहीं रहूँगा । "
सारथी ने सिर झुका लिया । उसे जाने की व्यग्रता अवश्य थी किन्तु उसकी स्वामिभक्ति संदेह से परे थी । उसने कहा -
" महाराज ! कोई चिंता की बात नहीं । मैं ठीक हूँ । आप निश्चिन्त होकर बैठें ।"
सारथी की ओर से निश्चिन्त होकर शांतनु पुनः क्षितिज की ओर देखने लगे । क्षितिज में भी वही मोहक स्वरूप दिख रहा था । धीरे - धीरे चारों तरफ अन्धकार छा गया ।
आकाश तारों से आच्छादित हो उठा ।
शांतनु के मन का निश्चय अब भी अडिग था ।
" इस प्रेम की पीड़ा अब और सहन नहीं होती । आज या तो उस प्रेम का वरण करूँगा अथवा यहीं बैठे - बैठे अपने प्राण त्याग दूँगा । "
जब प्रेम सत्य होता है तो मन के भावों का स्पंदन हर सीमा का अतिक्रमण कर अपने नियत लक्ष्य तक पहुँच ही जाता है ।
उनके हृदय की पीड़ा को शायद कोई और भी महसूस कर रहा था । सामने वही सौंदर्य की प्रतिमूर्ति प्रकट हुई । उसके शरीर से एक अद्वितीय तेज निकल रहा था । घने अन्धकार में भी उसका संपूर्ण शरीर अलौकिक प्रकाश से आलोकित था ।
क्रमशः .............
लेखक - राजू रंजन

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