दान

diya


“हे आर्यपुत्र ! इस निशा-विरह का संताप अब और नहीं झेला जाता। सूर्यदेव भी मेरे शत्रु हो चुके हैं । प्रात:काल से दूसरे प्रहर तक सूर्यदेव की रश्मियाँ घृत की भाँति मेरी विरहाग्नि को तीव्र से तीव्रतर करती जाती है । यहाँ आकर आपके स्नेहपाश में ही इसकी दाहकता शांत होती है । अब और विरह नहीं । मुझे आपका पूर्ण सामीप्य चाहिए ।“
यह कहकर शिविका ने आलिंगनबद्ध पुरू के वक्षस्थल पर शीश रखकर नेत्र मूँद लिए ।
“ शिविके ! चिंता मत करो । आज ही मैं पिताश्री से इस संदर्भ में बात करूँगा । मैं पिताश्री को सबसे प्रिय हूँ । निश्चय हीं हमारे विवाह के प्रस्ताव से वे अत्यंत प्रसन्न होंगे । उनके आशीर्वाद से निश्चय ही हम परिणय – सूत्र में बँधेगे । फिर विरह नहीं, सिर्फ प्रेम ही प्रेम होगा । “
पुरू ने यह कहकर शिविका के मस्तक को चूम लिया । पुरू एवं शिविका के संयोग में गोधूलि बेला तक प्रकृति भी जैसे डूबी रही । मंद प्रवाहित होता समीर भी रह-रह कर जैसे उनकी सांसों के समान कभी-कभी उतप्त हो उठता । पुष्करिणी के वक्षस्थल पर रह-रहकर तरंगे दोलायमान हो उठतीं । सिर्फ़ समय को ना जाने किस बात की शीघ्रता थी । गोधूलि बेला का हल्का अंधकार छाने लगा । पुरु ने शिविका को अश्व पर बैठाया । गंतव्य तक शिविका को पहुँचाकर पुरू प्रस्थान कर गए ।
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रात्रि का अंधकार और गहन हो चला था । राजकुमार पुरू हृदय को साहस से बाँधते पिताश्री से मिलने जा पहुँचे । महाराज ययाति अपने शयनकक्ष में टहलते मिले । उनके मस्तक पर चिंता की रेखाएँ स्पष्ट दिख रही थी । पुरू का हृदय शंकाकुल हो उठा । पुत्र को सामने देखकर महाराज ययाति ने अपने बाहु फैला दिए । पुत्र को गले लगाते ही महाराज की आँखों से कुछ आँसू की बूँदें पुरु के कंधे पर ढलक पड़ीं । पुरू अलग होकर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हुए पिता से प्रश्न पूछ बैठे –
पुरू – पिताश्री ! मैं अपने जीवनकाल में प्रथम बार आपकी आँखों को अश्रुयुक्त देख रहा हूँ । ऐसा क्या अनर्थ हो गया ?
ययाति – पुत्र ! तुम मेरे सबसे प्रिय हो । आज मुझे अन्य पुत्रों से जो निराशा मिली है उससे मेरा जीवन के प्रति मोह समाप्त हो गया है । जीने की इच्छा शेष नही रही ।
पुरू – पिताश्री ! मैं आपका कनिष्ठ पुत्र हूँ । फिर भी यह कहता हूँ कि अगर पुत्र से पिता को निराशा मिले तो ऐसे पुत्र के जीवन को धिक्कार है । मेरी आत्मा , मेरा शरीर– सबकुछ आपके ही अंश से निर्मित है । अगर आपकी प्रसन्नता के लिए मुझे इनका उत्सर्ग भी करना पड़ा तो यह मेरे लिए गर्व की बात होगी । आप आज्ञा कीजिए । इस पुत्र से आपको निराशा नही मिलेगी ।
पुरू ऐसा कहकर हाथ जोड़े महाराज ययाति के चरणों में बैठ गए ।
ययाति – पुत्र ! क्या कहूँ ? ये शब्द मुझसे कहे नही जाते किंतु अतृप्त इच्छाओं के दावानल में यह ययाति जल रहा है । इस अग्नि की पीड़ा अब और सही नही जाती ।
पुरू – पिताश्री ! इस विश्व में ऐसा कुछ भी नही जो आपको प्राप्य नहीं । फिर ऐसी कौन सी इच्छा है जो पूरी नही हो रही ? अगर मैं अपने प्राणों का मूल्य चुकाकर भी आपकी इच्छा को पूर्ण कर पाया तो मेरा जीवन सफल है ।
ययाति – ऐसा न कहो पुत्र ! ऐसा कौन सा पिता होगा जो अपने पुत्र के प्राणों की इच्छा करेगा । मेरे प्राण तो तुम ही हो ।
पुरू – फिर निस्संकोच कहिए पिताजी । यह पुत्र आपको निराश नही करेगा ।
ययाति – पुत्र ! आचार्य शुक्राचार्य के शापवश मैंने यौवनकाल में ही वृद्धावस्था को प्राप्त कर लिया था । मैं वर्षों से इस वृद्धावस्था की पीड़ा को सहन कर रहा हूँ । यह शरीर तो वृद्ध हो जाता है पुत्र ! परंतु मन वृद्ध नही होता । इस मन की आकांक्षाएँ पूर्ण रूप से तृप्त नही हो पाई । उन अतृप्त कामनाओं का बोझ मृत्यु के उपरांत भी शायद मुझे मोक्ष को वरण नही करने देगा । मन की इच्छाएँ अभी भी युवा हैं परंतु इस शरीर में अब वह बल नही । शुक्राचार्य ने मेरे पश्चाताप के उपरांत मुझे यह आशीर्वाद दिया था कि यदि कोई अपना यौवन मुझे प्रदान करे और मेरी वृद्धावस्था को ग्रहण करे तो मैं पुनः युवा हो जाऊँगा । उसके उपरांत एक सहस्र वर्ष तक मैं युवा रहूँगा । एक सहस्र वर्ष के उपरांत मैं उसे अपना यौवन लौटा सकूँगा ।
ऐसा कहकर ययाति शांत होकर अपने आसन पर बैठ गए । पुरू के मुख पर क्षोभ का लेश भी न था ।
पुरू – पिताश्री ! ऐसा स्वर्णिम अवसर तो शायद ही किसी पुत्र को करोड़ों वर्षों में भी प्राप्त हो । मैं तो भाग्यवान हूँ कि नियति ने मुझे पितृभक्ति का ऐसा अवसर प्रदान किया । मैं श्रद्धापूर्वक यह यौवन आपको अर्पित करता हूँ ।
यह कहते हुए पुरू ने पिता के चरणों पर अपना शीश रख दिया।
शांत सी दिख रही प्रकृति में अचानक मानों भूचाल सा आ गया । तीव्र वायु प्रवाहित होने लगी । अचानक आकाश काले मेघों से आच्छादित हो उठा । तीव्र मेघ गर्जना हुई और संपूर्ण राजप्रासाद के दीप बुझ गए । तत्क्षण एक तीव्र प्रकाश आकाश में कौंध उठा । आश्चर्यजनक रूप से सारे दीप पुनः प्रज्ज्वलित हो उठे और उस प्रकाश में एक अलौकिक दृश्य दिख पड़ा । महाराज ययाति का रूप परिवर्तित हो चुका था । उनका शरीर यौवन की कांति एवं ओज से परिपूर्ण हो उठा था । सामने चरणों में मस्तक झुकाए पुरू का शरीर जर्जर , श्वेत केशों से युक्त कांतिहीन दिख रहा था । महाराज ययाति ने पुत्र को उठा कर गले से लगा लिया और आशीर्वाद देते हुए बोले-
“ पुत्र ! जबतक यह सृष्टि रहेगी तुम्हारी कीर्ति अक्षय रहेगी । तुम्हारे जैसे पुत्र को पाकर मैं धन्य हो गया । मेरे शरीर-आत्मा के अणु-अणु से तुम्हारे लिये सिर्फ आशीष ही आशीष है । चिर यशस्वी भवः पुत्र ! चिर यशस्वी भवः ! “
महाराज से आशीर्वाद ग्रहण कर प्रफुल्लित मन से पुरू अपने कक्ष के लिए निकल गए । उनका रोम-रोम पुलकित था । उनके शरीर की जर्जरता ने उनकी आत्मा में ऐसा तेज उत्पन्न किया था जिसके आलोक से ब्रह्मांड की दसों दिशाएँ आलोकित हो रही थीं । कक्ष में थोड़ी देर विश्राम के बाद उन्हें शिविका की याद आई । आज की परिस्थिति में पिताश्री से यह बात करना उचित नही था । तत्क्षण उनकी दृष्टि उनके हाथों पर गयी । हाथों की मांसपेशियाँ ढीली और झूलती सी लगीं । उनके मन में अपने इस वृद्ध स्वरूप को देखने की इच्छा उत्पन्न हुयी । वे दर्पण के समक्ष खड़े हो गये । पुरू अपने प्रतिबिम्ब को देखकर चौंक गए ।
“ यह क्या ? मेरा रूप तो पूर्णतः परिवर्तित हो चुका है । ये श्वेत केश ! श्वेत श्मश्रु ! वृद्ध शरीर ! “
अचानक एक भय ने उनके हृदय को घेर लिया –
“कहीं शिविका इस पुरू को स्वीकार न कर पाई तो ? “
“ नहीं-नहीं ! मेरा प्रेम केवल शरीर के आलंबन पर नहीं टिका है । शिविका पुरू से प्रेम करती है , पुरू के मात्र
युवा शरीर से नहीं । “
स्वयं के दो प्रतिरूपों से युद्धरत पुरू शून्य की ओर निर्निमेष ताकते न जाने कहाँ खो गए ।
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राजकुमार पुरू के यौवन-दान एवं महाराज ययाति के पुनः युवा होने की चर्चा धीरे-धीरे पूरे राजप्रासाद में फैल गयी । सभी भ्राता पुरू के समक्ष आ पहुँचे । यदु , तुर्वसु , द्रुह्यु , अनु – सभी भाइयों ने पुरू के इस कृत्य को अनुचित ठहराया । अनु ने जो पुरू को भाइयों में सबसे अधिक स्नेह करते थे – पुरू को डाँटा भी । परंतु पुरू अपने अग्रजों को बिना कोई प्रत्युत्तर दिए सबकुछ शांतिपूर्वक सुनते रहे । उनकी मंद स्मिति में एक अलौकिक आभा थी जिसने सबको निरूत्तर कर दिया ।
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समय होने पर पुरू अपने अश्व पर सवार होकर शिविका से मिलने पुष्करिणी के तट की ओर चल पड़े । दूर से ही उन्होंने देखा शिविका पुष्करिणी के किनारे बैठी उसमें कंकड़ फेंक रही है । अश्व के पग की आवाज सुनकर उसने पथ की ओर दृष्टि उठायी ।
“ यह तो आर्यपुत्र का अश्व है !”
प्रसन्नता से वो खड़ी हो गयी । अश्व पास आकर रूका परंतु अश्व से उतरे पुरू शिविका के लिए बिल्कुल अपरिचित थे । उनके वृद्ध स्वरूप को शिविका पहचान न सकी । प्रतिदिन की तरह दौड़कर आलिंगन न करते शिविका को देखकर पुरू समझ गए कि वह उन्हें पहचान नहीं पाई है ।
“ शिविके ! दूर क्यों खड़ी हो ? मैं तुम्हारा पुरू ही हूँ ।“
कंठध्वनि पुरु के समान ही थी। आश्चर्य एवं भयमिश्रित स्वर में शिविका बोल उठी –
“ आपकी आवाज तो आर्यपुत्र की ही है परंतु आपका यह रूप ! मुझे कुछ समझ नही आ रहा । यह क्या है ? “
पुरु मंद मुस्कान के साथ बोले –
“ शिविके ! मैं तुम्हारा पुरू ही हूँ । शरीर नश्वर है- यह तो चिर-काल से कहा जाता रहा है । उस युवा शरीर ने मेरा साथ छोड़ दिया । अब यही वृद्ध शरीर मेरे जीवन में मेरे साथ रहेगा । परंतु तुम्हारे प्रेम के अमृत से मेरा मन चिर युवा रहेगा । “
पुरू ने एक बार पुनः अपने बाहु शिविका के आलिंगन हेतु आगे बढाए परंतु शिविका दूर खड़ी रही ।
“ आप सत्य कहें आर्यपुत्र ! आप वास्तव में वृद्ध हो चुके हैं या यह छ्द्म रूप बनाकर मेरे साथ क्रीड़ा कर रहे हैं ? “
शिविका ने प्रश्नवाचक दृष्टि से पुरू की तरफ देखा ।
“ मैं कभी असत्य नहीं कहता शिविके ! यह वृद्ध शरीर मेरे पिताश्री का है और मैं अपना यौवन उनके चरणों में एक सहस्र वर्षों के लिये अर्पित कर चुका हूँ । अब वे शापमुक्त हो चुके हैं । उनको सुख प्रदान करके मेरा जीवन धन्य हो गया प्रिये ! “
ऐसा कहकर पुरू वहीं भूमि पर बैठ गए । उनका वृद्ध शरीर अश्वयात्रा से थोड़ा थक गया था । काफी देर तक वातावरण में मौन छाया रहा । शिविका अपने ही स्थान पर किंकर्तव्यविमूढ सी खड़ी न जाने क्या सोचने लगी ।
पुरू को शायद शिविका की मनःस्थिति का भान हो रहा था अतः वे शांत थे । इस मौन को कुछ देर के बाद शिविका ने ही तोड़ा –
“ आर्यपुत्र ! आपने यौवन-अर्पण के समय मेरी तनिक भी चिन्ता न की ? मेरे जीवन के सर्वस्व तो आप ही थे । क्या आपका इस शिविका के प्रति कोई धर्म नहीं ? “
पुरू – शिविके ! तुम तो मेरे लिये सर्वस्व हो । हमारा प्रेम क्या सिर्फ शरीर के आलम्बन पर टिका है ? मैं तो इस प्रेम को शरीर से कहीं आगे आत्मा की सम्पत्ति मानता हूँ जो सर्वदा अजर-अमर है।
शिविका – परन्तु ! आर्यपुत्र ! यह शरीर ही तो आत्मा से प्रारम्भिक परिचय कराता है । यह शरीर ही स्पर्श , घ्राण , ध्वनि आदि इन्द्रियोचित क्रियाओं से आत्मा के तारों को झंकृत करता है । इस शरीर का मोहक रूप ही तो मेरे और आपके नेत्रों के मार्ग से हृदय प्रदेश में प्रवेश करता है और आत्मा को तृप्ति प्रदान करता है । क्या मेरा सौन्दर्य आपके प्रथम प्रेम की उत्पत्ति का एक अनिवार्य कारण न था ? मैं अगर एक कुरूपा, कर्कशा नारी होती तो क्या तब भी आपका प्रेम मेरे प्रति उत्पन्न होता ? आपने प्रेम के लिये इस मोहक रूप वाली शिविका को ही क्यों चुना जिसके रूप-सौन्दर्य की चर्चा सम्पूर्ण नगर में रहती है ?
शिविका के प्रश्नों ने पुरू को विचलित कर दिया । ये प्रश्न निराधार न थे । यथार्थ की धारयुक्त इन प्रश्नों ने पुरू को भीतर तक बेध दिया । पुरू निस्तब्ध और लाचार से शिविका का मुख देख रहे थे । उन्हें कोइ उत्तर देते नही बन रहा था । फिर भी किसी प्रकार बोल उठे –
पुरू – शिविके ! मैंने अपने पुत्र-धर्म का पालन किया । क्या यह कोई अपराध है ? क्या मेरे धर्म पालन से तुम्हारा मस्तक उन्नत नहीं होता ?
शिविका – हे आर्यपुत्र ! आपकी पितृ-भक्ति निश्चय ही श्रेष्ठतम है परन्तु आपका क्या मेरे प्रति कोई धर्म नहीं था ? क्या आपने उस धर्म का पालन किया ? क्या यह मेरे साथ अन्याय नही है ? आपके लिए मुझे प्रेम करना सरल होगा क्योंकि मुझमें कोई परिवर्तन नही हुआ । मेरा रूप-सौन्दर्य सबकुछ वैसा ही है परन्तु मेरा क्या ? मेरे लिए तो सबकुछ परिवर्तित हो चुका है । मुझे अब एक परिवर्तित पुरू से प्रेम करना होगा परन्तु प्रेम को इस नवीन पुरू के लिये उत्पन्न करना क्या सरल होगा ? क्या आपने अपने पुत्र-धर्म के पालन हेतु मेरी आकांक्षाओं को विनष्ट नही कर दिया ? आपके लिए यह प्रेम अब भी सहज है किन्तु मेरे लिए यह कितना दुष्कर हो चुका है इसका तनिक अनुमान किजिए ।
पुरू कुछ देर तक शून्य में ताकते रहे और शिविका वहीं दूर खड़ी रही ।
“ शिविके ! मैंने अपने धर्म का पालन किया । हो सकता है इस क्रम में तुम्हारे साथ कुछ अन्याय हुआ हो परन्तु जिनके शरीर के अंश से मेरा इस जगत में आगमन हुआ शायद उनके प्रति मेरा कर्तव्य सर्वप्रथम है । तदुपरांत ही अन्य धर्म मेरे लिए पालनीय हैं । अगर मुझसे तुम्हारे प्रति अपराध हुआ हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ ! तुम स्वतंत्र हो ! मैं अपने प्रेम के पाश में तुम्हे बलात नहीं बाँधूगा । प्रेम उन्मुक्त होता है इसमें कोई बन्धन नहीं । तुम निर्णय के लिए स्वतंत्र हो । जो भी निर्णय हो मुझे स्वीकार है । “
पुनः दोनों के बीच काफी देर तक मौन छाया रहा । शिविका बार-बार वृद्ध पुरू में अपने आर्यपुत्र को तलाश रही थी । परन्तु , प्रेम तो नहीं बल्कि उस रूप में ना जाने कैसा विकर्षण था जो शिविका के प्रेम को पराजित कर रहा था । अंततः शिविका को वह वृद्ध स्वरूप असह्य हो उठा ।
“ राजकुमार पुरू ! मुझे क्षमा कीजिए । मेरे हृदय में अब आपके प्रति प्रेम उत्पन्न नहीं हो रहा । शायद मेरा प्रेम आपके उस मोहक रूप के साथ ही चला गया । मैं उसे वापस पाने में असमर्थ हूँ । एक सहस्र वर्ष की प्रतीक्षा शायद मुझसे न हो पाएगी । मुझे क्षमा कीजिए । “
यह कहकर शिविका हाथ जोड़े शीश झुकाए वहीं भूमि पर बैठ गयी । उसके नेत्रों से अश्रु झरने लगे ।
“ शिविके ! तुम मुक्त हो ! परन्तु मेरा प्रेम भी अमर है । मैं इस प्रेम की मधुर स्मृति में एक सहस्र वर्ष व्यतीत कर लूँगा किन्तु तुम एक नवीन जीवन का आरम्भ करो । मैं तुम्हे अपने प्रेम से स्वतंत्र करता हूँ । “
निर्विकार भाव से यह कहकर पुरू अपने अश्व पर बैठे और राजप्रासाद की ओर चल पड़े । अभी गोधूलि बेला नहीं थी । सूर्यास्त में अभी कई घंटे शेष थे । अश्व भी शायद पुरू की पीड़ा की सम्वेदना को ग्रहण कर रहा था । आज उसका वेग और दिनों की भाँति तीव्र न था ।
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प्रातःकाल होते ही पुरू के सबसे प्रिय अनुचर सुपालि महाराज ययाति के कक्ष की तरफ दौड़ते हुए पहुँचे । महाराज के आदेश के उपरांत उन्होंने भीतर प्रवेश किया । उनके सामने शीश झुकाकर हाथ जोड़े सुपालि खड़े हो गए ।
ययाति – कहो सुपालि ! क्या बात है ? तुम इतने उद्विग्न क्यों दिख रहे हो ?
सुपालि – अगर प्राणदान मिले तो मैं कुछ कहूँ महाराज !
ययाति – आज्ञा है ! भयमुक्त होकर कहो ।
सुपालि – महाराज ! राजकुमार पुरू रात्रि में ही किसी अज्ञात स्थल के लिए प्रस्थान कर गए हैं । उनका आदेश था कि प्रातःकाल तक यह सूचना किसी को न दी जाए । उन्होंने मुझे अपने सभी आभूषण सेवा के पारितोषिक के रूप में देकर यह पत्र आप तक पहुँचाने की आज्ञा दी थी ।
महाराज का मुख चिंता से उद्विग्न हो उठा । बोल पड़े –
“ पत्र पढकर सुनाओ ! क्या लिखा है ?
सुपालि पत्र खोलकर पढना आरंभ करते हैं –
आदरणीय पिताश्री !
       प्रणाम !
माताश्री को भी प्रणाम कहिएगा । मैं अपने इस अपराध के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ किे देवतुल्य माता-पिता को त्यागकर मैं अज्ञात स्थल को प्रस्थान कर रहा हूँ ।
             इस वृद्ध शरीर ने मेरे ज्ञान-चक्षु खोल दिए हैं । मैं आत्मान्वेषण करना चाहता हूँ । मुझे नवीन यथार्थ का साक्षात्कार हो रहा है । ऐसे क्षण में एकांत ही मेरा सबसे उपयुक्त सहचर हो सकता है । इस आत्मान्वेषण में कितना समय व्यतीत होगा इसका मुझे ज्ञान नहीं परन्तु आपके दर्शन हेतु मैं वापस अवश्य लौटूँग़ा ।
                                                         आपका प्रिय पुत्र
                                                             पुरू !
महाराज ययाति शीश पकड़कर धम्म से आसन पर गिर गए । पूरे राजप्रासाद में हाहाकार मच गया । पुरु सर्वप्रिय थे । हर दिशा में राजकुमार की तलाश में अश्वारोही दौड़ाए गये परन्तु कोइ समाचार नहीं मिला ।
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कुछ दिन बीत गए । महाराज ययाति पुत्र वियोग में अपनी कामनाओं की पूर्ति की बात भूल चुके थे । एक दिन राजकुमार अनु रात्रिकाल में उनके कक्ष में पधारे । राजकुमार अनु के आगमन से महाराज के मुख पर कोई प्रसन्नता न थी । इससे पहले ययाति अपने इस पुत्र को उनकी यौवन प्राप्ति की इच्छा पूरी न करने के अपराध में शाप दे चुके थे । शाप यह था कि अनु को अपने युवा पुत्र की मृत्यु का शोक सहना पड़ेगा ।
अनु ने महाराज को प्रणाम किया एवं हाथ जोड़कर बोले-
“ पिताश्री ! अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं कुछ निवेदन करना चाहता हूँ ।“
ययाति रूखे स्वर में बोले –
“आज्ञा है कहो !”
अनु – पिताश्री ! आज आपके समक्ष एक पुत्र नही अपितु पुरू का भ्राता खड़ा है । इस भ्राता को अपने कुछ प्रश्नों के उत्तर चाहिए ।
ययाति – कैसे प्रश्न ?
अनु – अनुज पुरू ने तो अपने पुत्र-धर्म का पालन कर संपूर्ण आर्यावर्त को अपने यश से जीत लिया परन्तु क्या आपने पितृ-धर्म का पालन किया ? अपने पुत्र के यौवन से अपनी कामनाओं की पूर्ति करना एवं पुत्र को युवावस्था में वृद्ध शरीर की पीड़ा प्रदान करना क्या पाप नहीं ? मुझे तो आपने पुत्र की मृत्यु के शोक का शाप दिया परन्तु क्या आपने अपने युवा पुत्र को वृद्ध बनाकर उसकी हत्या नहीं कर दी ? क्या आपको अपने प्रिय युवा पुत्र की मृत्यु का शोक नहीं ?
अनु के प्रश्न शूल की भाँति महाराज ययाति की आत्मा को बेध रहे थे । उनके मुख से कोई उत्तर नहीं निकल रहा था । मौन ! हताश महाराज ययाति के आँखों से आँसू गिरने लगे और उन्होंने अपनी आँखे बंद कर लीं । अनु तीव्र गति से कक्ष से प्रस्थान कर गए । कुछ ही क्षणों में महाराज के कक्ष के दीप बुझ गए । चारों ओर सिर्फ निवीड़ अंधकार !
लेखक --- राजू रंजन

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